अधिकार और कर्त्तव्य

🥀 २९ सितंबर २०२३ शुक्रवार 🥀
!! भाद्रप्रदशुक्लपक्ष पूर्णिमा २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖”अधिकार” और “कर्त्तव्य”➖
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👉 “अधिकार” के साथ “कर्त्तव्य” का योग स्वाभाविक है। जहाँ अधिकार है वहाँ कर्तव्य भी है। जिस प्रकार आप ईश्वरीय अधिकार के पात्र हैं, उसी प्रकार ईश्वरीय कर्त्तव्य का दायित्व भी आपके कन्धों पर है। “अधिकार” और “कर्त्तव्यों” के क्रम में “कर्त्तव्य” का स्थान पहले है। कर्त्तव्य के आधार पर ही अधिकार की प्राप्ति होती है और उसकी चरितार्थता भी कर्तव्य पर निर्भर है। केवल यह बौद्धिक विश्वास कि हम ईश्वर के पुत्र हैं, उसके अंश और प्रतिनिधि हैं- ईश्वरीय अधिकार का स्वामी न बना देगा, उसके लिये निश्चय ही ईश्वरीय कर्त्तव्य का पालन करते हुए अपने विश्वास की वास्तविकता प्रमाणित करनी ही होगी। अस्तु अधिकारों की भाँति अपने उस ईश्वरीय कर्त्तव्य का बोध कर लेना भी आवश्यक है। बोध होने पर ही उसके पालन की सुविधा हो सकेगी।
👉 ईश्वर ने सृष्टि रचना करने तक ही अपने कर्त्तव्य को सीमित नहीं रक्खा। उसने अपनी इस सृष्टि का पालन भी अपने कर्त्तव्यों में सम्मिलित किया हुआ है। इसी कर्त्तव्य की पूर्ति के लिये उसने विविध प्रकार की वनस्पतियाँ, विविध प्रकार के अन्न, वायु, जल और अग्नि आदि साधन उत्पन्न किए। साथ ही जीवों को जीवन रक्षा और उसके साथ आनन्द अनुभूति की चेतना भी अनुग्रह की है। उसकी इस कृपा के आधार पर ही जीव-मात्र संसार में आनन्दपूर्वक जी रहे हैं।
👉 ईश्वर के इस कर्त्तव्य के अनुसार उसके प्रतिनिधि मनुष्य पर भी यह कर्त्तव्य आता है कि वह सृष्टि पालन और उसके संचालन में अपने परमप्रभु-अपने परमपिता के साथ योग करे। इस योगदान करने की विधि, इसके सिवाय क्या हो सकती है कि वह ऐसे काम
करे जिनसे संसार की प्रगति हो और उसमें सुख-शांति का समावेश हो। यह मन्तव्य तभी पूरा हो सकता है, जब मनुष्य स्वयं अपने को उदात्त और आदर्श चरित्र वाला बनाये। वह मानवीय संयम का पालन और ईश्वरीय नियमों का निर्वाह करे। यह नियम और संयम उसके दिये धर्म में पूरी तरह वर्णित है। धर्म का पालन करते रहने से ईश्वरीय कर्त्तव्य का पालन होता चलेगा।
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