🥀 ०३ मार्च २०२४ रविवार🥀
🍁फाल्गुन कृष्णपक्ष अष्टमी२०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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〰️अपराधों की रोकथाम〰️
➖मात्र कानून से नहीं➖
चिंतन परिष्कृत होना आवश्यक है
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👉 “समस्याएँ” और “कठिनाइयाँ” अपने आप आसमान से नहीं टपकती हैं। वे मनुष्यों की गतिविधियों से उत्पन्न होती हैं। यह गतिविधियाँ-हलचलें हाथ-पैरों की ही दिखाई पड़ती हैं, उनमें मस्तिष्क की स्थिति और प्रेरणा का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं भी होता, तो भी उसके लिए वही पूरी तरह से उत्तरदायी होता है। विषम परिस्थितियों को सुधारने के लिए अवांछनीय हलचलों को रोका जाना चाहिए, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यह रोकथाम केवल शारीरिक प्रतिबंधों से संभव नहीं! रोकने का तरीका जो भी अपनाया जाय यदि मस्तिष्क ने उसे स्वीकार नहीं किया, तो फिर कोई दूसरा ढंग निकाल लिया जायेगा और पहले ही जैसी अवांछनीयता, उससे ही मिलती-जुलती हरकतें होने लगेंगी। मनुष्य की चतुरता सर्वविदित है। वह बाहय प्रतिबंधों को तोड़ने के लिए किसी न किसी प्रकार का रास्ता खोज ही लेता है।
👉 कानून हर बुरे काम के विरुद्ध बने हुए हैं और उन्हें करने वाले अपराधियों के लिए जेल, पुलिस, कचहरी का पूरा प्रबंध है। जांच-पड़ताल के लिए इन्सपेक्टरों की, गुप्तचरों की सरकारी मशीनरी काम करती है, उस मशीनरी को रोकथाम के साधन भी दिये जाते हैं और उस पर खर्च भी बहुत होता है। इतने पर भी हर अपराध का पूरी तरह बोलबाला बना रहता है। पकड़ में तो दस प्रतिशत भी नहीं आते। जो पकड़े जाते हैं, उनमें से तीन चौथाई तिकड़म-तरकीब से छूट जाते हैं। जिनको दंड मिलता है उनकी संख्या समस्त अपराधियों में से एक प्रतिशत भी नहीं होती। फिर दंड पाने के बाद वे और भी अधिक निर्लज्ज हो जाते हैं। जेल जाकर तो वहाँ अन्य साथियों से पूरा प्रशिक्षण पाकर लौटते हैं और सुधरने की बजाय अपने फन में पूरे माहिर दीखते हैं। ऐसे लोग नौसिखिये न रहकर पूरे उस्ताद बन जाते हैं। यहाँ जेल, पुलिस को न तो व्यर्थ बताया जा रहा है और न उसका उपहास किया जा रहा है। कहना इतना ही है कि संसार में असंख्य प्रकार की विपत्तियाँ उत्पन्न करने के लिए जो दुष्प्रवृत्तियाँ मूल कारण हैं, उन्हें मिटाने के लिए, हलचलें रोकने के लिए प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियाँ पर्याप्त नहीं है। मुख्यतः मनुष्य का चिंतन परिमार्जित किया जाना चाहिए, दृष्टिकोण इस प्रकार बदला जाना चाहिए, जिससे उसको नीतिमत्ता के लाभ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें। मनुष्य निजी विवेक के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उसका गौरव एवं लाभ नीतिमत्ता अपनाने में है। *दुष्प्रवृत्तियों को अपनाने से जो दुष्परिणाम उसे भुगतने पड़ेंगे, उनका कल्पना चित्र यदि सही रूप में सामने हो तो फिर उसके फैसले नीति समर्थक होंगे। *इस तरह स्वेच्छा से छोड़ी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ ही छूटती हैं। मन उन्हें पकड़े रहे तो जड़ जमी रहेगी और वह बाढ़ का पानी किसी भी रास्ते से फूट पड़ेगा ।*
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