🥀 ०४ मार्च २०२४ सोमवार🥀
🍁फाल्गुनकृष्णपक्षनवमी२०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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आवश्यकताएं सीमित रखने में ही
👩🎤➖समझदारी है ➖👩🎤
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👉 व्यक्तिगत जीवन में अभाव, निर्धनता और गरीबी हमारी नैसर्गिक सुख-शांति को नष्ट न कर सके इसके लिए क्या किया जाना चाहिए? उत्तर एक ही मिलता है हम अपनी “आवश्यकताएँ” इतनी ही रखें जिन्हें अपनी आय में ही पूरा कर सकें। “तेते पाँव पसारिये-जेती लांबी सौर” वाली कहावत हर स्थिति में सुखी और संतुष्ट रहने का उपाय है। लेकिन इस सिद्धांत की केवल व्यक्तिगत उपयोगिता ही नहीं है वरन सामाजिक सुव्यवस्था के लिए भी यह सिद्धांत बड़ा उपयोगी है।
👉 आवश्यकताएँ बढ़तीं हैं तो उनकी पूर्ति के लिए अतिरिक्त साधन जुटाना भी जरूरी हो जाता है। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि व्यक्ति को अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़े या अपनी क्षमता से भी अधिक प्रयास करने आवश्यक हो जाएँ। आवश्यकताएँ जब बढ़ना शुरू हो जाती हैं तो वे किसी भी सीमा पर रुक नहीं सकतीं। यह भी जरूरी और वह भी जरूरी वाली स्थिति धीरे-धीरे बनने लगती है। वस्तुतः आवश्यकताएँ उत्पन्न होती हैं मनोरथों से ही। मन कभी इस चीज को जरूरी बताता है तो कभी उस चीज को । और ये जरूरतें पूरी होने पर और नई जरूरतें उत्पन्न हो जाती हैं। इसलिए कहा गया है कि मनोरथों की कोई अंतिम सीमा नहीं है और इसी प्रकार उससे जनित आवश्यकताओं की भी नहीं। यह निश्चित रूप से कभी नहीं कहा जा सकता कि अमुक वस्तु मिल जाने पर हम संतुष्ट हो जाएँगे और फिर कोई नई माँग नहीं रखेंगे।
👉 लेकिन इस तथ्य से अनभिज्ञ लोग, भिज्ञ होते हुए भी व्यामोहग्रस्त हो अपनी आवश्यकताओं के विस्तार से नहीं चूकते और उन्हें पूरा करने के लिए हर उचित-अनुचित उपाय करते हैं। विश्व में जितने भी अपराध होते हैं, जितनी चोरियाँ, डकैतियाँ, हत्याएँ, खून और व्यभिचार होते हैं वे इसलिए नहीं कि आदमी अपराधों की ओर प्रवृत्त होता है वरन इसलिए होते हैं कि उनकी आवश्यकताएँ उनकी सामर्थ्य से परे की माँग होती हैं। और वह माँग इतनी जबरदस्त उठती है कि उसे पूरी न करने की क्षमता होते हुए भी व्यक्ति को उसकी पूर्ति के संबंध में सोचना व करना पड़ जाता है।
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