ईश्वरीय नियमों का पालन कीजिए || Follow Divine Laws

🥀 २० मार्च २०२४ बुधवार🥀
फाल्गुन शुक्लपक्ष एकादशी २०८०
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‼ऋषि चिंतन‼
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ईश्वरीय नियमों का पालन कीजिए
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👉 ईश्वर ने हमको यह जो अद्भुत मानव देह दी है और इसमें ऐसे अ‌द्भुत अंग-प्रत्यंग बनाये हैं जिनसे हम अत्यन्त सूक्ष्म तथा पेचीदा कार्यों को भी करने में समर्थ हो सकते हैं तो इनके संबंध में हमारा यह कर्तव्य है कि उन सभी अंगों से ठीक-ठीक काम लें और उन्हें कार्यक्षम स्थिति में रखें । प्रकृति ने हमारी आँखों की रचना देखने के लिए, कानों की सुनने के लिए, नाक की सूँघने के लिए, जिह्वा की बोलने और रसास्वादन के लिए की है। यदि हम इन कार्यों में निरन्तर इन अंगों का उपयोग न करते रहेंगे तो वे अवश्य ही निर्बल पड़ जायेंगे । इसी प्रकार मनुष्य के हाथ-पाँव श्रम करने को दिये गये हैं। अगर इनको इस काम में न लगाया जायेगा तो ये भी बेकार हो जायेंगे । पर आज लाखों-करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं जो हाथों से किसी प्रकार का उपयोगी श्रम नहीं करते और पैरों का काम प्रायः सवारियों से ही निकाला करते हैं। इस प्रकार वे इन अंगों को ऐसा निकम्मा बना डालते हैं कि किसी आकस्मिक आवश्यकता के समय उनको या तो परमुखापेक्षी बनना पड़ता है या कष्टों में पड़कर विवशतापूर्वक कुपरिणामों को सहन करना होता है ।
👉 यदि निष्पक्ष भाव से विचार किया जाय तो हम इस बात से कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि जो लोग शारीरिक श्रम से विमुख रहकर अपना समस्त समय कुर्सी और गद्दे-तकियों पर गुजारा करते हैं और केवल विचार करने, आदेश देने या विज्ञान अथवा कला संबंधी बहुत हल्का कार्य करने में ही लगे रहते हैं, वे एक प्रकार से ईश्वर और प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं। इसका आशय यह नहीं कि हम उनके कार्य के महत्व को स्वीकार नहीं करते हैं । इसमें संदेह नहीं कि अनेक वैज्ञानिक, कलाकारों, साहित्यकारों के परिश्रम से ही आज हम एक उत्कृष्ट मानव-संस्कृति के दर्शन कर रहे हैं और अपने जीवन को उच्च बनाने में समर्थ हो रहे हैं । पर यह सब होने पर भी हमको यह कहना पड़ेगा कि मानव जीवन का “प्रथम कार्य” “शारीरिक श्रम” है और “,बौद्धिक कार्यों का स्थान दूसरा ही है । क्योंकि यह एक प्रत्यक्ष तथ्य है कि चाहे कोई बड़ा अध्यत्मवेत्ता हो, चाहे महाकवि हो, चाहे विज्ञान में पारंगत और कला के आचार्य हो, सबके लिए भोजन और वस्त्र की पहले आवश्यकता होती है। इन पदार्थों के बिना उसका अस्तित्व ही नहीं रह सकता और इन्हीं से शक्ति प्राप्त करते हुए वे अपने विशेष कार्यों को पूरा करने में समर्थ होते हैं। इसलिए “शारीरिक श्रम” को किसी दृष्टि से हीन समझना या उसके करने में अपनी श्रेष्ठता की हानि अनुभव करना एक बड़ी गलती है।
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