क्या आपको भी➖👈उपासना में आनंद नहीं आता है

🥀०१ नवंबर २०२३ बुधवार🥀
!!कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्थी २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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👉➖क्या आपको भी➖👈
उपासना में आनंद नहीं आता है
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👉 “उपासना” में आनन्द कब नहीं आता ?जब कोई मनुष्य उसे सामान्य जीवन क्रम से भिन्न एक विशेष कर्तव्य समझकर करता है। ऐसा भाव रहने से कुछ समय बाद “उपासना” उसे एक अनावश्यक बेगार-सी अनुभव होने लगती है, जिससे वह आनन्द अनुभव करने के स्थान पर थकान अनुभव करने लगता है और कुछ ही समय में उसे छोड़छाड़ कर बैठ जाता है।
👉 मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जो कार्य उसके जीवन- क्रम में रमे नहीं होते अथवा जिनका वह अभ्यस्त नहीं होता उनके करने में वह खिन्नता ही अनुभव करता है। यहां तक कि रोजमर्रा के बंधे टके कामों में भी यदि कोई काम आकस्मिक आवश्यकतावश बढ़ जाता है तो वह उसे करता भले ही है, किन्तु एक बेगार, एक बोझ की तरह।
👉 वही नियम उपासना के विषय में भी लागू रहता है। अतएव “उपासना” जीवन-क्रम से भिन्न किसी विशेष कर्तव्य की भाँति नहीं, जीवन-क्रम के एक अभिन्न अंग की भाँति करना चाहिये। उपासना जब जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाती है तो उसकी पूर्ति करने में वैसी ही तृप्ति होती है जैसी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में। जीवन का अंग बना “उपासना” को जब तक पूरा नहीं कर लिया जाता तब तक हृदय में उसी प्रकार की छटपटाहट रहती है जैसे किसी प्रियतम से मिलने की इच्छा में। उपासना मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। उसे इसी रूप में ग्रहण करना चाहिये। “उपासना” किसी विशेष कर्तव्य के रूप में ग्रहण करने से भिन्नता का भाव रहता है। पूरे समय वह विचार करता रहता है कि वह कोई विशेष काम रहा है , बीवीजिसके कारण उसमें एकाग्रता प्राप्त नहीं हो पाती, जिसके अभाव में उसमें अपेक्षित आनन्द की उपलब्धि नहीं होती। स्वाभाविक है कि जिस कार्य में अरुचिपूर्ण निरानंदता रहती है वह देर तक नहीं चल पाता, और यदि खींच-तान कर चलाया भी गया तो उसमें किसी बड़े फल की अपेक्षा नहीं की जा सकती। “उपासना” में तब भी कोई आनन्द नहीं आता जब वह किसी लाभ अथवा लोभ के लिये की जाती है। किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर जब उपासना की जाती है तब उपासक का ध्यान इष्ट के प्रति लगा रहने के स्थान पर अभीष्ट के प्रति लगा रहता है, जिससे भावनाओं का वेग इष्ट की ओर उन्मुख रहने के बजाय लोभ की और गतिवान रहता है। इससे इष्ट की समीपता प्राप्त होने के बजाय लोभ को बल मिलता है जिससे वह उत्तरोत्तर दुर्निवार होता जाता है और कल्याणवती उपासना प्रतिकूल दिशा में फलीभूत होने लगती है। मनुष्य लोभ, लाभ, स्वार्थ एवं कामनाओं का भंडार बन कर स्वयं अपने लिये भयंकर बन जाता है।
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