क्या उपासना करने वाले दुःखी रहते हैं

🥀२२ अक्टूबर २०२३ रविवार🥀
!!आश्विन शुक्लपक्ष अष्टमी २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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क्या उपासना करने वाले दुःखी रहते हैं
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👉 अनेक बार लोग कह उठते हैं कि “यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि अधिक उपासना करने वाले लोग बहुधा विपन्न और दुःखी ही रहा करते हैं ।” संसार का कोई भी सच्चा उपासक इस विपरीत कथन से सहमत नहीं हो सकता। *”उपासना” का परिणाम तो संतोष, शांति, प्रफुल्लता, आशा, विश्वास तथा आनन्द ही होता है। तब उसको धारण करने वाले को विपन्नता और दुःख किस प्रकार हो सकता है ? *मनुष्य वृक्ष की घनी छाया में बैठे और उसका आतप-ताप दूर न हो, फूलों से भरी वाटिका में विहार करे और उसका तन-मन न महक उठे, ऐसा किस प्रकार सम्भव हो सकता है?* उपासना के माध्यम से परमात्मा के समीप रहने पर आत्मा में आनन्द का सागर न लहराने लगे यह सम्भव नहीं।
प्रेम, करुणा, आत्मीयता और आनन्द की पावन धाराएँ निरन्तर ही परमात्मा में प्रवाहित होती रहती है। इन अमरत्व तत्त्वों से ही तो संसार के प्राणियों और पेड़-पौधों का पालन-पोषण होता है। एक क्षण को भी यदि वह परम दयालु परमात्मा अपनी इस कृपा को रोक ले, तो इस सुन्दर संसार को नष्ट होते देर न लगे। ऐसे आनन्दकन्द परमात्मा के संसर्ग में आकर कोई विपन्न और दुःखी रहे, यह तो अत्यन्त आश्चर्य की बात है।
👉 उपासना का परिणाम आत्मानन्द और आत्म-सन्तोष है। उपासना करने से इन्हीं की उपलब्धि होगी । भौतिक विभूति और आर्थिक उपलब्धियों के लिए पुरुषार्थ और परिश्रम का नियम निश्चित है। जो इस नियम का उल्लंघन करते हैं या करेंगे उन्हें विपन्न रहना ही पड़ेगा। परमात्मा ने जब साधन, शक्ति, उपाय एवं बुद्धि की व्यवस्था करके भौतिक उपलब्धियों का मार्ग प्रशस्त कर दिया तब क्या कारण है कि लोग उससे उपासना के पुरस्कार रूप धन-दौलत और सुख-सुविधा चाहते हैं। यह अनधिकार चेष्टा है, जिसको स्वीकार नहीं किया जा सकता।
👉 उपासना करते हुए भी जो विपन्न और दुःखी रहते हैं, वे सच्चे उपासक नहीं। प्रभु के पास उनका गमन ठीक वैसा ही होता है, जैसे कि कोई बच्चा मंदिर की प्रार्थना में प्रसाद के लालच से शामिल होने जाता है । ऐसे लालची लोग उपासना का वह आनंद नहीं ले पाते, जो भक्ति रस में डूबे हुए भावों के साथ प्रभु को आत्म समर्पण करने वाले उपासकों को मिलता है। प्रभु के चरणों में अपनी अन्तरात्मा को निष्काम भाव से अर्पण करने वाले भक्ति-विभोर और प्रसाद की मिठाई लेने के उद्देश्य से उपस्थित लोभी में जो अन्तर होता है, वही अन्तर सच्चे तथा वंचक उपासक में होता है।
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