🥀 ०९ अक्टूबर २०२३ सोमवार 🥀
!! आश्विन कृष्णपक्ष दशमी २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖जीवन एकांगी न बनने देवें➖
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👉 मनुष्य की दुःखपूर्ण स्थिति की कारणभूत भूल पर विचार करने से यही पता चलता है कि मनुष्य अपने स्वरूप को भूला हुआ है और यही अज्ञान उसको शोक-संतापों के कुछ कंटको में घसीट रहा है। जीवन का मंतव्य, महत्त्व, मूल्य तथा उपयोग विस्मरण कर देने से उसका मार्ग गलत हो गया है। जिसको यह ही पता न रहे कि “मैं क्या हूँ”, “मेरा कर्त्तव्य और लक्ष्य क्या है, उसका जीवन-पथ ठीक भी कैसे हो सकता है। उसका भटक जाना पथ- भ्रांत हो जाना स्वाभाविक ही है। मूल्य एवं महत्त्व न जानने वाले के पास यदि रत्नों की पोटली रख दी जाए तो वह उसको मिट्टी मोल ही बरबाद कर देगा।
👉 ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि मनुष्य ने बहुत प्रगति की है। वैज्ञानिक विकास और सुख-सुविधा के प्रचुर साधन तथा वैभवपूर्ण रहन-सहन देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि मनुष्य इतना दुःखी और विक्षुब्ध होगा कि उसे जीवन एक असह्य भार-सा अनुभव हो। निःसन्देह भौतिक प्रगति की दृष्टि से यह अभूतपूर्व युग है; किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि इसने वैयक्तिक, सामाजिक सुख-शान्ति को बढ़ाया नहीं, घटाया ही है। यह बाह्य जीवन के साथ-साथ आन्तरिक जीवन का विकास न करने का ही परिणाम है। यह विकास एकाँगी एवम् अपूर्ण है। अपूर्णता दुःखों की मूल मानी गई है। दो पहियों पर चलने वाली गाड़ी को यदि एक पहिये पर घसीटा जाए तो असुविधा और तकलीफें बढ़ेंगी ही। मनुष्य का जीवन बाह्य एवं आन्तरिक दो भागों से मिलकर बना है। यदि दोनों समानान्तर गति पर न रहेंगे तो वांछित सुख-शान्ति के लिए निराश ही रहना होगा। विषमता स्पष्ट है। बाह्य, भौतिक अथवा ज्ञानविकास क्षति के छोर छूता हुआ आगे बढ़ रहा है और आन्तरिक, आत्मिक अथवा आध्यात्मिक प्रगति पाताल की ओर गिरती जा रही है। अपेक्षित शान्ति के लिए इन दोनों गतियों में संतुलन एवम् सामंजस्य स्थापित करना होगा। उसका उपाय यह है कि भौतिक प्रगति के साथ हम सब मनुष्यों को अपना सत्य स्वरूप, जीवन का उद्देश्य तथा उसका मूल – महत्व फिर समझना होगाऔर उसी गरिमा के अनुसार अपनी गतिविधियों का निर्धारण करना होगा ।
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