🥀 ०१ अक्टूबर २०२३ रविवार 🥀
!! आश्विन कृष्णपक्ष द्वितीया २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖ दृष्टि बदले तो सृष्टि बदले➖
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👉 अशुभ कर्मों का सम्पादन और देह का जड़ अभियान ही मनुष्य को छोटा बनाए हुए है। शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख का भोक्ता न होने पर भी आत्मा मोहवश होकर दुःख भोगती है। “मैं देह हूँ” “मुझे सारे अधिकार मिलने ही चाहिए” यह मान लेने से जीव स्वयं कर्त्ता-भोक्ता बन जाता है और इसी कारण वह ‘जीव’ कहलाता है। जब तक वह इतनी सी सीमा में रहता है तब तक उसकी शक्ति भी उतनी ही तुच्छ और संकुचित बनी रहती है। जब वह इस भ्रम रूप देहाभ्यास का परित्याग कर देता है तो वह शिव-स्वरूप, ईश्वर-स्वरूप हो जाता है। उसकी शक्तियाँ विस्तीर्ण हो जाती हैं और वह अपने आपको अनन्त शक्तिशाली, अनन्त आनन्द में लीन हुआ अनुभव करने लगता है।
👉 अपनी तुच्छ सत्ता को परमात्मा की शरणागति में ले जाने से मनुष्य अनेकों कष्ट-कठिनाइयों से बच जाता है और संसार के अनेक सुखों का उपभोग करता है। गृहपति की अवज्ञा करके जिस तरह घर का कोई भी सदस्य सुखी नहीं रह सकता उसी प्रकार परमात्मा का विरोधी भी कभी सुखी या सन्तुष्ट नहीं रह सकता । परमात्मा की अवमानना का अर्थ है उनके सार्वभौमिक नियमों का पालन न करना । अपने स्वार्थ, अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिए कोई भी अनुचित कार्य परमात्मा को प्रिय नहीं । इस तरह की क्षुद्रबुद्धि का व्यक्ति ही उसके कोप का भाजन बनता है, पर जो विश्व कल्याण की कामना में ही अपना कल्याण मानते और तद्नुसार आचरण करते हैं, ईश्वर के अनुदान उन्हें इसी तरह प्राप्त होते हैं जैसे कोई पिता अपने सदाचारी, आज्ञा-पालक और सेवाभावी पुत्र को ही अपने सुख-सुविधाओं का अधिकांश भाग सौंपता है ।
👉 पापों का नाश हुए बिना, इन्द्रियों का दमन किए बिना अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती। संसार में रहते हुए मनुष्य कर्मों से भी छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता। अतः निष्काम कर्मयोग परमात्मा की प्राप्ति और सांसारिक सुखोपभोग का सबसे सुन्दर और समन्वययुक्त धर्म है। निष्काम भावनाओं में पाप नहीं होता वरन् दूसरों के हित की, कल्याण की और सबको ऊँचे उठाने की विशालता होती है जिससे अन्तःकरण की पवित्रता बढ़ती है, और सुख मिलता है। अतएव प्रत्येक मनुष्य को संसार-समर का योद्धा बनकर ही जीवन- यापन करना चाहिए। वह साहस, वह गम्भीरता और वह कार्य करने की भावना मनुष्य ब्रह्म ज्ञान और ब्रह्म सान्निध्यता में ही प्राप्त करता है।
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