”ऋषि चिंतन”
विज्ञान का अतिवाद रोका जाएगा-१ उपार्जन सरल है, उसे तो लुटेरे भी बड़ी मात्रा में कर लेते हैं । पर सदुपयोग के लिए बड़ी चढ़ी विवेकशीलता और दूरदर्शिता चाहिए । इसके बिना खतरा ही खतरा बना रहेगा । किसी उद्दंड के हाथ में पहुँची माचिस की एक तीली सारे गाँव को भी देखते-देखते जलाकर भस्म कर सकती है । फिर महाविनाशकारी अस्त्रों के ढेर में किसी पागल द्वारा एक चिंगारी फेंक देने पर इस सुंदर पृथ्वी का, प्राणी जगत का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है । बात उस स्थिति तक न पहुँचे तो भी सामान्य जीवन में शक्ति का दुरुपयोग कितना भयंकर हो सकता है, इसका अनुमान उन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कुचक्रों को देखते हुए लगाया जा सकता है जिसके कारण मानवीय कुटिलता ने हर दिशा में अनाचारों के आडंबर खड़े कर दिए हैं ।
आश्चर्य इस बात का है कि सुविधा साधनों की इतनी अभिवृद्धि होते हुए भी मनुष्य “विलास,” “अनाचार” और “आक्रमण” पर इस कदर क्यों उतारू है ?
और यह ढीठता दिन दिन क्यों अधिक बढ़ती जा रही है ?
कानून कचहरी क्यों काम नहीं आ रही है ?
धर्मोपदेश और नीति नियमन के लिए किए जा रहे अनेक प्रस्तुतीकरण क्यों अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं ?
साहित्य, संगीत और कला का परंपरागत रुझान अपना परंपरागत राजमार्ग छोड़कर किस कारण पतन और पराभव का वातावरण बनाने को जुट गया है ?
ये सभी प्रश्न जितने अनसुलझे हैं, उतने ही कष्ट कारक भी हैं । साथ ही यह सोचा जा सकता है कि जब अगले दिनों मानव अधिक चतुर और समर्थ होगा तो वह सार्वजनिक शांति के लिए कितना खतरनाक सिद्ध होगा? ऐसी दशा में अगले दिनों जिस प्रगति की आशा की जाती और संभावना देखी जाती है उसका लाभ मनुष्य को मिलेगा या और भी अधिक गहरे दलदल में फँस जाएगा, यह प्रश्न चिन्ह ? है ।