🥀 ११ अक्टूबर २०२३ बुधवार 🥀
!! आश्विन कृष्णपक्ष द्वादशी २०८० !!
➖➖➖➖‼️➖➖➖➖
‼ऋषि चिंतन‼
➖➖➖➖‼️➖➖➖➖
〰️〰️〰️➖🌹➖〰️〰️〰️
➖शरीर से परे जो हैं ➖
〰️❗वह हम है❗〰️
〰️〰️〰️➖🌹➖〰️〰️〰️
👉 हमारा “वर्तमान” जीवन, “वर्तमान” की ही वस्तु है, ऐसा मानना समीचीन नहीं। हमारा जीवन पहले भी था और आगे भी रहेगा। जीवन का वास्तविक अस्तित्व अदृश्य जगत् में ही रहता है। यही नहीं संसार की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक पदार्थ, जिसे हम देख रहे हैं. देख चुके हैं अथवा आगे देखेंगे, वह आज ही उत्पन्न नहीं हुई है। उसका अस्तित्व पहले से ही सूक्ष्म अथवा अदृश्य जगत् में वर्तमान था। मनुष्य का प्रत्यक्ष जीवन स्थूल- लोक से प्रारम्भ होता दीखता अवश्य है; किन्तु वह वस्तुतः पहले से ही चला आता होता है। यह स्थूल शरीर जिसके छूट जाने को हम जीवन का अन्त मान लेते हैं. वास्तविक शरीर जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं, का ऊपरी आवरण अथवा कलेवर मात्र है।
👉 यह जो कुछ क्रिया-कलाप करता दीखता है वह उस सूक्ष्म शरीर की ही क्रिया होती है, जो इसके आधार पर प्रकट हुआ करती है। अपने इसी कलेवर के भीतर वह वास्तविक और शाश्वत सूक्ष्म शरीर वृद्धि करता हुआ पूर्णता को प्राप्त होता रहता है। जिस प्रकार छिलके के भीतर अनाज का दाना धीरे-धीरे विकसित होकर पकता रहता है और जब वह पूरी तरह पक जाता है तो बाहर निकल जाता है, जिससे ऊपर का छिलका बेकाम हो जाता है। उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के पूर्ण विकसित हो जाने पर अथवा परमात्म-तत्त्व को आत्मसात् कर लेने पर स्थूल शरीर बेकार और व्यर्थ हो गिर जाता है। अन्तर केवल इतना है कि अन्न का दाना अपने एक ही आवरण में पूरी तरह पक जाता है और सूक्ष्म शरीर अथवा जीवात्मा को पूर्ण विकास पाने के लिये अनेक बार स्थूल शरीर का कलेवर धारण करना पड़ता है, और जिस दिन वह आत्म प्रतीति की स्थिति में पहुँच जाता है, उसके बाद उसे फिर शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती, वह अपने अनादि एवं अनन्त जीवन प्रवाह में स्रोत की तरह मिल कर तद्रूप हो जाता है।
👉 यदि वास्तविक दृष्टि से विचार किया जाए, तो पता चलेगा कि हमारा जीवन स्थूल शरीर नहीं, सूक्ष्म शरीर ही है। हम जो कुछ करते हैं, उसी रूप में करते हैं और जो कुछ आगे करेंगे उसी रूप में। हमारा यह बाह्याकार कितना ही बदलता रहे; किन्तु उसमें रहने वाला जीवात्मा कभी नहीं बदलता। हमारा जीवन अपरिवर्तनशील और अमर है और यही “रहस्य” संसार का सबसे बड़ा “सत्य” है।
➖➖➖➖🪴➖➖➖➖