१५ अक्टूबर २०२३ रविवार
!! अश्विन शुक्लपक्ष प्रतिपदा २०८० !!ऋषि चिंतन
सच्ची आस्तिकता
विपन्नताओं की स्थिति में धैर्य न छोड़ना, “आस्तिकता” का प्रथम चिन्ह है जिसे परमात्मा जैसी अनंत सामर्थ्यवान सत्ता के साथ बैठने का सौभाग्य प्राप्त है वह किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति से क्यों डरेगा ? क्यों अधीर होगा ? क्यों निराशा और कातरता प्रकट करेगा ? धैर्य और साहस की अजस्र धारा उसके मनः क्षेत्र में से उठती ही रहनी चाहिए।
जो “आस्तिक” है उसकी आशा कभी क्षीण नहीं हो सकती। वह केवल उज्ज्वल भविष्य पर ही विश्वास रख सकता है। अन्धकार अनात्म तत्त्व है। आत्म-परायण व्यक्ति के चारों ओर प्रकाश- केवल प्रकाश रहना चाहिए। उसे झुंझलाने और खिन्न होने की आवश्यकता क्यों पड़ेगी? “आस्तिकता” माने-आत्म विश्वास करने वाले को अपना भविष्य सदा उज्ज्वल एवं प्रकाशवान् ही दिखाई देगा।
“उपासना” का दूसरा प्रतिफल है श्रेष्ठताओं की वृद्धि । चूँकि परमात्मा समस्त श्रेष्ठताओं का केन्द्र है, उसका सान्निध्य आत्मा को दिन-दिन उत्कृष्ट बनाता चलता है। भक्त को अपना भगवान् सब में दिखाई पड़ता है इसलिए वह हर किसी की अच्छाइयाँ देखता है और उनकी चर्चा एवं विचारणा करते हुए अपने आनन्द और दूसरों के सद्भाव को बढ़ाता है। निन्दा और ईर्ष्या असुरता के दो प्रधान अस्त्र हैं। इनका प्रयोग उसी पर किया जा सकता है जिसके प्रति परायेपन का, शत्रुता, का भाव रहे। जब सब अपने हैं तो अपनों की निन्दा कैसी ? अपनो से ईर्ष्या कैसी ?
बुराई को तोड़ने के लिए नहीं, अच्छाई को बढ़ाने के लिये उसके प्रयत्न होते हैं। “अच्छाई” को बढ़ाना ही वस्तुतः बुराई को तोड़ना है। बुराई तोड़ दी जाय और उसके स्थान पर अच्छाई की स्थापना न हो तो टूटी हुई बुराई फिर उपज आती है। “आस्तिकता” का दृष्टिकोण अच्छाई को बढ़ाना होता है ताकि बुराई के लिए कोई गुञ्जायश ही न रहे। वह सदा अच्छाई की चर्चा करेगा। प्रेम से दुष्टता को परास्त करेगा। दुष्टता करके प्रेम के अंकुरों को जला देना “असज्जनों” का काम है। “आस्तिक” असज्जन नहीं हो सकता।