🥀 १६ फरवरी २०२४ शुक्रवार🥀
🍁माघ शुक्लपक्ष सप्तमी २०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖❗सच्ची कमाई❗➖
〰️➖ धन नहीं ➖〰️
➖‼️गुण संवर्द्धन है‼️➖
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👉 मनुष्य एक महत्त्वाकांक्षी प्राणी है । उसकी प्रवृत्ति अधिकांशत: उसी दिशा में होती है, जिसमें कि अपना महत्त्व और प्रभाव बढ़ता हुआ दिखाई देता है। इसका एक उपाय तो यह है कि व्यक्ति अपनी गुण संपदा को बढ़ाए और अपने चरित्र को औसत स्तर के चरित्र से ऊँचा उठाए। वास्तविक सुख और सच्ची शांति इसी में मिलती है किंतु यह कठिन प्रतीत होता है। आसान यही लगता है कि अपनी लौकिक स्थिति औरों की अपेक्षा अच्छी बना ली जाय, उसके साथ साधन- सुविधाओं के आकर्षण भी हैं। औपचारिक सम्मान भी मिलता है जिससे अहंकार की खुजली खुजलाने का सा आनंद प्राप्त होता है। अर्थात संपन्नता के क्षेत्र में कितना ही आगे बढ़ जाएँ संतोष नहीं मिलता, क्योंकि अहंकार की परिधि और बड़ी हो जाती है। दूसरे हजारों व्यक्ति अपने से निर्धन स्थिति में पड़े दिखाई देते हैं, उन्हें निर्धन ही देखकर अहंकारी को थोड़ी देर तो यह संतोष होता है कि मैं उनसे अच्छी स्थिति में हूँ। पर जब अपने से संपन्न व्यक्ति दिखाई देने लगते हैं तो उनकी स्थिति-अहंकार को चोट पहुँचाकर उसमें और भी खुजलाहट पैदा करती है।
👉 धन को ही केंद्र मानकर चलाए जाने वाले क्रिया-कलाप इसी तरह के होते हैं। यदि अपने व्यक्तित्व को गुण-संपन्न बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाय तो लोकश्रद्धा के साथ-साथ आत्मसंतोष और शांति भी मिल सकती है परंतु अपने अहंकार को केंद्र बना लिया जाय तो संपन्नता अर्जित कर सम्मान प्राप्त करने की आकांक्षा अवांछनीयता को ही बढ़ावा देने लगती है। मनुष्य समाज में यही दुर्घटना उन दिनों घटी जब व्यक्ति के प्रयत्नों और उसके गुणों को नजर अंदाज कर संपन्नता को ही प्रतिष्ठा का आधार समझा जाने लगा। इस भटकाव ने ही मनुष्य समाज में आर्थिक दुराचार और मिथ्या आचरण को प्रोत्साहन दिया।
👉 संपन्नता को सम्मान मिलते देखकर उन व्यक्तियों में भी संपन्नता का आकर्षण उत्पन्न हुआ जो “सादा जीवन उच्च विचार” के आदर्श का अनुगमन कर रहे थे अथवा जिनमें उपलब्ध साधनों से ही संतोष करने और परिश्रम पुरुषार्थ से स्थिति में सुधार लाने का साहस व धैर्य था। इन दिनों समाज में चारों ओर अनैतिकता, बेईमानी, दुराचार और अवांछनीय हथकंडे अपनाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। उसका यही कारण है कि मानवीय गुणों से मनुष्य की साधन-सुविधाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण समझी जाने लगीं। यह तथ्य भुला दिया गया कि आत्म- संतोष जीवन का मूल आधार है, आत्मिक प्रगति वास्तविक लक्ष्य है, “गुणों का संवर्द्धन” सच्ची कमाई है। “धन” तो जीवन निर्वाह का एक छोटा सा “साधन” मात्र है। “साध्य” तो मनुष्य की गरिमा और उसके गौरव की सिद्धि है।
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