धर्माचरण अर्थात आत्म विकास || Dharmacharana Means Self-Development

🥀 १३ मार्च २०२४ बुधवार🥀
🍁फाल्गुन शुक्लपक्ष🍁
➖तृतीया / चतुर्थी २०८०➖
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‼ऋषि चिंतन‼
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“धर्माचरण” अर्थात “आत्म विकास”
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👉 आध्यात्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य मानवता का उच्चतम स्तर प्राप्त करना ही है। मानवता की चरमावधि पर पहुँचकर मनुष्य दैवत्व की परिधि में प्रवेश करता है और वहाँ से शनैः-शनैः उठता हुआ ईश्वरीय परिधि की ओर बढ़ता जाता है। इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की सोपान परंपरा में मनुष्य का विकास आदि सोपान है। आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु व्यक्ति को सर्वप्रथम अपनी “मनुष्यता” का ही विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। जो साधक मनुष्यता का विकास न कर सीधे-सीधे ईश्वरप्राप्ति की कामना से साधनारत रहते हैं, उनको अपने उद्देश्य में सफलता मिल सकना असंभव ही समझना चाहिए।
👉 “मनुष्यता” के विकास का क्रम “शरीर” से चलता हुआ “आत्मा” तक पहुँचता है और तब “आत्मविश्वास” से “आध्यात्मिक” विकास की ओर मार्ग जाता है। शारीरिक विकास का तात्पर्य उसके लंबे-चौड़े, मोटे- ताजे होने से नहीं है, वरन इसका मात्र मंतव्य उसके पूर्ण आरोग्य से है।
👉 शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आत्मिक विकास यों ही आप-से-आप नहीं हो जाता, उसके लिए कुछ निश्चित नियम एवं कर्तव्य हैं, जिनका सावधानीपूर्वक पालन करना होता है। इन नियमों एवं कर्त्तव्यों के क्रम को “धर्म” कहा जाता है। इस प्रकार “धर्म” का आचरण करना ही वह उपाय है, जिसके आधार पर मनुष्य आत्मविकास की ओर बढ़ता है।
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