🥀 २२ मार्च २०२४ शुक्रवार🥀
फाल्गुन शुक्लपक्ष त्रयोदशी २०८०
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖जीवन जीने की कला➖
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👉 “धर्म” का तत्त्वदर्शन सही समझ में आ सके तो “जीवन जीने की कला” का ज्ञान हो सकता है। सुसंस्कारिता से युक्त जीवन ही धर्मपरायण जीवन है। श्रेष्ठताओं एवं मानवीय आदर्शों के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहकर किए गए सत्प्रयास ही “धर्म” की परिधि में आते हैं। “धर्म” के इस मर्म को जन-जन को समझाना ही सच्चा परमार्थ है।
👉 “धर्म” का तत्त्वदर्शन विधेयात्मक सद्गुणों को अपने जीवन में, अंतःकरण में धारण करने, अपने आचरण में उतारने में सन्निहित है। इसे ही “जीवन जीने की कला” कहते हैं। अपने आप को जानना, अपने धर्म-कर्तव्य-अकर्त्तव्य के बारे में जानना, सत् को स्वीकार करना, असत् से विमुख होना, अपने अस्तित्व को जानना, देखना तथा अपनी आत्मचेतना के बारे में बारंबार निरंतर चिंतन-मनन करना अभीष्ट है। अपने आत्मकल्याण तथा लोक-कल्याण के बारे में ज्ञान के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। आत्मज्ञान और आत्मकल्याण की दिशाधारा वैदिक आर्षग्रंथों का स्वाध्याय और स्वात्मार्पण से ही सुनिश्चित होती है।
👉 भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए स्वाध्याय को निर्विवाद रूप में सहायक माना गया है, किंतु इसकी महत्ता एवं उपयोगिता तभी है जब अध्ययन की गई उपयोगी प्रेरणाएँ “जीवन- व्यवहार” में उतरें। यह व्यवस्था न बन सकी तो स्वाध्याय से अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकता। इसके लिए मनन एवं चिंतन की प्रक्रिया अपनानी होती है, जिससे उपयोगी प्रेरणाएँ अंतःकरण की गहराई में उतरकर व्यवहार का अंग बन जाएँ।
👉 स्थूल ज्ञान द्वारा हम अपनी सांसारिक जानकारियाँ बढ़ाकर अपने मस्तिष्क को अधिक उर्वर, सक्षम और समर्थ बना सकते हैं। यश, धन, व्यक्तित्व, शिल्प, कौशल आदि इस स्थूल ज्ञान के आधार पर ही प्राप्त किए जा सकते हैं, जिसे शिक्षा भी कहा जा सकता है। शिक्षा सांसारिक जानकारी देती है और उसकी पहुँच मस्तिष्क तक ही होती है-इसकी जड़ें गहराई तक जा पहुँचती हैं, मस्तिष्क के आगे अंत:करण तक जिसका प्रवेश है, वह “विद्या” है। इस “विद्या” का आधार “आध्यात्मिक ज्ञान” है और उसकी उपलब्धि अध्ययन तथा सत्संग द्वारा होती है।
👉 अंतःकरण तक प्रवेश करने में सक्षम विद्या से लाभान्वित होने के लिए अपने सामने एक आदर्श होना अनिवार्य है। उस “आदर्श” का आधार अध्ययन द्वारा अर्जित “ज्ञान” भी हो सकता है तथा कोई ऐसा “सत्पुरुष” भी हो सकता है जिसने इस विद्या को- तत्त्वज्ञान को हृदयंगम किया हो, अपने जीवन में उतारा हो। आधार प्राप्त न हो तो वह विद्या भी एक तरह की भौतिक शिक्षा मात्र बनकर ही रह जाती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता। सच्चा आत्मज्ञान केवल जानकारी भर बनकर नहीं रह सकता, उसकी पहुँच अंतःकरण के गहन स्तर तक होती है और उस स्थान तक पहुँचा हुआ प्रकाश जीवनक्रम में प्रकाशित हुए बिना नहीं रह सकता।
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