🥀 ०४ अप्रैल २०२४ गुरुवार🥀
🍁चैत्र कृष्णपक्ष दशमी २०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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👉❗🙏उपासना🙏❗👈
व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाने की विधा है
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👉 ईश्वर “आदर्शों” का समुच्चय है। उपासना का अर्थ होता है- समीप बैठना। समीप बैठना वैसा-जैसा कि गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचकर अपना गीलापन समाप्त कर लेती है और आग की उष्मा को अपने में धारण करके सूखती चली जाती है। अधिक निकट पहुँचने पर स्वयं आग बन जाती है। “उपासना” का वास्तविक अर्थ यही है। महानता की समस्त उत्कृष्टताओं के पुंज परमेश्वर का सान्निध्य प्राप्त करके साधक उसकी गुण-गरिमा को क्रमशः अपने में अधिकाधिक मात्रा में भरता चला जाए। यही दैवी विभूतियाँ व्यक्तित्व को श्रेष्ठ, शालीन, उदार और उदात्त बनाती हैं। कहना न होगा कि व्यक्तित्वसंपन्न व्यक्ति एक प्रकार से सिद्धपुरुष ही होता है। उसका मूल्य हर क्षेत्र में सामान्य नर- पशुओं की तुलना में हजारों-लाखों गुना अधिक आँका जाता है। तदनुरूप उस पर चारों ओर से सम्मान-सहयोग भी बरसता है। जो इस स्तर का लाभ पा सकेगा, उसे स्वभावतः उच्चस्तरीय सफलताएँ भी मिलती चली जाएँगी। ऐसे लोग ही हर क्षेत्र में श्रेय पाते और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं। इसी सुखद प्रतिफल को यदि कोई चाहे तो “उपासना” का चमत्कार कह सकता है।
👉 ईश्वर निष्पक्ष न्यायकारी है, उसके दरबार में किसी का मूल्य उसकी “प्रामाणिकता” एवं “परमार्थपरायणता” के आधार पर ही आँका जाता है। न उसे प्रशंसा की आवश्यकता है और न पूजा सामग्री की। नाम लेने न लेने का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे किसी उपहार की भी कोई आवश्यकता नहीं। विश्व-संपदा के अधिष्ठाता की ऐसी इच्छा आवश्यकता हो भी नहीं सकती। यह हमारी अपनी क्षुद्रता है, जो इतनी बड़ी शक्ति को नगण्य से, उपचारों से, प्रभावित करके उससे उचित-अनुचित मनोरथों की पूर्ति करा देने की बात सोचते हैं। ऐसा पक्षपात तो कोई ईमानदार न्यायाधीश तक नहीं करता। फिर ईश्वर जैसी महान शक्ति प्रशंसा पूजा जैसे उपहासास्पद उपहारों के बदले कर्मफल की समस्त नियम-मर्यादाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर देगी; यह सोचना परले सिरे की मूर्खता का परिचय देना है।
👉 ईश्वर-उपासना जिन्हें भी करनी हो, वे इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए करें। उस आधार पर उपलब्ध होने वाली दिव्य प्रेरणाओं के सहारे अपने गुण, कर्म, स्वभाव की प्रसुप्त विशेषताओं को विकसित करें और उन्हीं समस्त सिद्धियों-विभूतियों को पाने के अधिकारी बनें; जो भक्तियोग की साधना करने वालों में मिलने की बात शास्त्रकारों एवं आप्तजनों ने अपने प्रतिपादनों में समय-समय पर बताई हैं।
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