आत्मिक प्रगति की सुनिश्चित साधना गायत्री साधना पद्धति || A Sure Method for Spiritual Progress Gayatri Sadhana Paddhati

🥀 १६ अप्रैल २०२४ मंगलवार🥀
🍁चैत्र शुक्लपक्ष अष्टमी २०८१🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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आत्मिक प्रगति की सुनिश्चित साधना
गायत्री साधना पद्धति
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👉 “आत्मिक प्रगति” के लिए सुनिश्चित साधना पद्धति में गायत्री के अवलंबन से बढ़कर दूसरा मार्ग नहीं हो सकता, इसे भारतीय धर्मानुयायी क्रमशः अच्छी तरह समझते और अनुभव करते जा रहे हैं। उसके लिए उपयुक्त विधान होना चाहिए, उसकी समुद्र मंथन जैसी लंबी अनुसंधान प्रक्रिया का जो निष्कर्ष नवनीत निकलता है, वह सर्वसाधारण के सामने प्रस्तुत है। गायत्री महाविज्ञान या छोटी पुस्तिकाओं से उसे सरलतापूर्वक देखा, समझा जा सकता है। अब तो उनका प्रचलन भी इतना हो गया कि किसी नैष्ठिक साधक से पूछकर निर्भ्रांत साधना पद्धति को जाना जा सकता है। कोई संदेह हो तो शान्तिकुंज हरिद्वार, गायत्री तपोभूमि मथुरा के केंद्र उसका निराकरण समाधान करने के लिए विद्यमान हैं।* ऐसी दशा में साधना से सिद्धि प्राप्त करने के मार्ग में जो प्रथम अवरोध सही मार्गदर्शन न मिलने का-सही अध्यापक अध्यापन न मिलने का था, उसका समाधान मिल गया ही समझा जा सकता है।
👉 मार्गदर्शन के अतिरिक्त प्रगति पथ पर अग्रसर होने का दूसरा अवंलबंन है “पुरुषार्थ” । “पुरुषार्थ” के दो पक्ष हैं एक “श्रम”, दूसरा “मनोयोग”। श्रम में स्फूर्ति और तत्परता होनी चाहिए। मनोयोग में तन्मयता, निष्ठा का समावेश होना चाहिए। अन्यथा इन दोनों का स्तर नहीं बनता और चिन्ह-पूजा होने जैसी स्थिति बनी रहती है। *लकीर पीटते रहने को पुरुषार्थ नहीं बेगार भुगतना कहा जाता है। उसका प्रतिफल भी नगण्य ही मिलता है। साधना के क्षेत्र में भी उच्चस्तरीय “पुरुषार्थ” चाहिए। साधक की उपासना में सघन “श्रद्धा” और जीवन प्रक्रिया में “उत्कृष्टता” का अधिकाधिक समन्वय होना चाहिए। भजन-पूजन बेगार भुगतने की तरह क्रिया-कृत्य बनकर ही नहीं चलते रहना चाहिए वरन् उसमें सघन निष्ठा का समावेश होना चाहिए।
👉 साधनात्मक पुरुषार्थ में (१) “उपासना” का नियमित और निश्चित होना (२) “व्यक्तित्व में पवित्रता” एवं प्रखरता का समावेश बढ़ना। (३) तपश्चर्या की – “संयम” एवं “सेवा शर्तों” को पूरा किया जाना-ये तीन चरण हैं। साधक इन्हीं के सहारे इतना सशक्त बनता है कि अंतराल से सिद्धियों का उभार – संसार से सम्मान, सहयोग और अदृश्य जगत से दैवी अनुग्रह की विद्युत वर्षा होने लगे। उपासना में सप्ताह में एक दिन “अस्वाद”, “ब्रह्मचर्य” एवं “मौन” की संयम साधना पर जोर दिया गया है। साथ ही नवसृजन के लिए “अंशदान” की उदारता बरतने में निष्ठावान रहना चाहिए। इन्हें तपश्चर्या की नीति अपनाने का अंगुलि निर्देशन समझा जाना चाहिए। इन्हें मात्र कृत्य की तरह पूरा भर नहीं कर लिया जाना चाहिए, वरन् उन्हें तपस्वी जीवन के आधारभूत सिद्धांत समझा जाना चाहिए और निरंतर यह प्रयत्न चलना चाहिए कि यह आदर्श व्यक्तित्व के अंग बनकर दबे देवत्व को उभारने का चमत्कार दिखा सकें।