🥀// २८ जून २०२४ शुक्रवार //🥀
🍁 आषाढ़कृष्णपक्ष सप्तमी२०८१ 🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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अपनी उपासना को सार्थक बनाएं
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👉 अध्यात्म-साधना को “ज्ञान” और “विज्ञान”- इन दो पक्षों में विभाजित कर सकते हैं। “ज्ञान” पक्ष वह है जो पशु और मनुष्य के बीच का अंतर प्रस्तुत करता है और प्रेरणा देता है कि इस सुरदुर्लभ अवसर का उपयोग उसी प्रयोजन के लिए किया जाना चाहिए, जिसके लिए वह मिला है। इसके लिए किस तरह सोचना और किस तरह की रीति- नीति अपनाना उचित है, इसे हृदयंगम कराना “ज्ञानपक्ष” का काम है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, प्रवचन, पाठ, मनन, चिंतन जैसी प्रक्रियाओं का सहारा इसी प्रयोजन के लिए लिया जाना चाहिए।
👉 इसी पक्ष का दूसरा चरण यह है कि धर्म, सदाचार, संयम, कर्त्तव्यपालन के उच्च सिद्धांतों को अपनाकर “आदर्शवादी” जीवन जिया जाए। अवांछनीय “चिंतन” और “कर्तृत्व” में ही मनुष्य की अधिकांश शक्तियों का अपव्यय होता रहता है। दुर्बुद्धिग्रस्त और दुष्कर्म निरत व्यक्ति अपना ओजस नष्ट करते रहते हैं और उस प्राणशक्ति को गँवा बैठते हैं, जो उच्चस्तरीय प्रगति के लिए उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे मोटर के लिए पेट्रोल । बिना तेल के मोटर कैसे चलेगी ? बिना प्रखर प्राणशक्ति के आत्मिक प्रगति किस प्रकार संभव होगी ? अस्तु, “ज्ञान-साधना” द्वारा चिंतन को उत्कृष्ट और कर्तृत्व को आदर्श बनाया जाता है। यह जमीन को जोतकर, खाद-पानी लगाकर उर्वर बना लेने की तरह है। ऐसी ही परिष्कृत मनोभूमि पर “उपासना” का बीजारोपण किया जाता है, तभी बोई हुई फसल लहलहाती है। ऐसी ही उर्वरा भूमि पर लगाया गया उद्यान फलता-फूलता देखा जाता है। आत्मोत्कर्ष की आकांक्षा बहुत लोग करते हैं, पर उसके लिए न तो सही मार्ग जानते हैं और न उस पर चलने के लिए अभीष्ट सामर्थ्य एवं साधन जुटा पाते हैं। दिग्भ्रांत प्रयासों का प्रतिफल क्या हो सकता है ? अंधा, अंधे को कहाँ पहुँचा सकता है ? भटकाव में भ्रमित लोग लक्ष्य तक किस प्रकार पहुँच सकते हैं? आज की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि “आत्मविज्ञान” का न तो सही स्वरूप स्पष्ट रह गया है और न उसका क्रियापक्ष, साधन-विधान ही निर्भ्रांत है। इस उलझन में एक सत्यान्वेषी जिज्ञासु को निराशा ही हाथ लगती है।
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