🥀// ३० जून २०२४ रविवार //🥀
🍁 आषाढ़ कृष्णपक्ष नवमी२०८१ 🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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पूजन के प्रतीकों का उच्चस्तरीय दर्शन
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👉 देवालयों, तीर्थो एवम् निजी पूजागृहों में स्थापित “देव प्रतिमा” के आधार पर की गई “पूजा” – “आराधना” सर्वसुलभ एवम् सामान्य मनोभूमि के लिए सर्वथा उपयुक्त है। यदि उसके पीछे जुड़ गई भ्रांतियों और अवांछनीयताओं को हटा दिया जाए, तो इस माध्यम को व्यक्ति एवं समाज के भावनात्मक एवं नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने में बहुत सहायक सिद्ध पाया जाएगा। “मूर्ति, चित्र, पुष्प आदि की साज-सज्जा, शांत वातावरण आदि उपासना के उपयुक्त मनोभूमि बनाने में सहायता करते हैं।”
👉 “मूर्ति” आदि को ही सब कुछ मान लेना बुरा है, उनका “समुचित उपयोग” बुरा नहीं है। “मूर्ति” एक “संकेत” है, “प्रतीक” है। पुस्तक भी एक मूर्ति है। उसमें छपी हुई आड़ी टेढ़ी लकीरों के रूप में अक्षर होते हैं। देखने में यह पुस्तक प्रतिमा सर्वथा “जड़” है, उसमें “चेतन” नहीं खोजा जा सकता, पर उस पुस्तक के सहारे हमारे मनःक्षेत्र में मनीषियों द्वारा प्रतिपादित अत्यंत महत्त्वपूर्ण “विचार” उत्पन्न होते और पनपते हैं। इस मायने में वह “चेतन” भी है। “गीता” की पुस्तक “जड़” है, उसे झींगुर- कीड़े, चूहे आसानी से काट सकते हैं, पर इतने भर से उस ज्ञान- प्रतिमा का मूल्य किसी भी प्रकार घट नहीं जाता। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ दिव्य संवाद उसके पृष्ठों पर पढ़ा जा सकता है और वैसा ही लाभ लिया जा सकता है जैसा कि उस अवसर पर स्वयं उपस्थित रह सकने पर हो सकता था। सीसी सीवीपत्र व्यवहार में कितना महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। महत्त्वपूर्ण इकरारनामे और दस्तावेज जड़ कागज ही होता है, पर उनके आधार पर कितने बड़े फैसले होते हैं, इसे कौन नहीं जानता। चूँकि कागज पानी में गल सकता है, इसलिए इस पर लिखे आलेखों का कोई महत्त्व नहीं, ऐसा सोचना उपहासास्पद है। हम अपने पूर्वजों, गुरुजनों अथवा मान्य प्रतीकों के प्रति असीम सम्मान रखते हैं और उनकी अवज्ञा पर दुःख मानते एवं रोष प्रकट करते हैं। भगवान जड़ तो नहीं है, पर वह जड़ पदार्थों में समाया हुआ न हो ऐसी भी कोई बात नहीं है। जब जड़- चेतन सभी में उसकी सत्ता विद्यमान है, तो प्रतिमा में उसकी उपस्थिति न होने की बात भी क्यों सोची जाए ?
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