साधना किसान से सीखें

🥀 ०५ जुलाई २०२४ शुक्रवार 🥀
//आषाढ़ कृष्णपक्ष अमावस्या२०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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❗साधना किसान से सीखें❗
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👉 “साधना” का महत्त्व “किसान” जानता है। पूरे वर्ष अपने खेत की मिट्टी के साथ अनवरत गति से लिपटा रहता है और फसल को स्वेद कणों से नित्य ही सींचता रहता है। सरदी-गरमी की परवाह नहीं। जुकाम-खाँसी की चिंता नहीं। शरीर की तरह ही खेत उसका कर्मक्षेत्र होता है। एक-एक पौधे पर नजर रहती है। खाद, पानी, निराई, गुड़ाई से लेकर रखवाली तक के अनेकों कार्य करने से पूर्व वह उनकी आवश्यकता समझता है और किसी के निर्देश से नहीं, अपनी गति से ही निर्णय करता है कि कब, क्या और कैसे किया जाना चाहिए। किसी के दबाब से नहीं, अपनी इच्छा और प्रेरणा से ही उसे खेत की, उसे सँभालने वाले बैलों की, हल, कुदाल आदि संबद्ध उपकरणों की व्यवस्था जुटाए रहने की सूझ-बूझ सहज ही उठती और स्वसंचालित रूप से गतिशील होती रहती है। यह सब होता है बिना थके, बिना ऊबे और बिना अधीर हुए। आज का श्रम कल ही फलप्रद होना चाहिए, इसका आग्रह उसे तनिक भी नहीं होता। फसल अपने समय पर पकेगी, तब तक उसे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा ही करनी होगी, यह जानने के कारण अनाज की ढेरी कोठे में भरने की आतुरता भी उसे नहीं होती। इतने मन अनाज निश्चित रूप से होना ही चाहिए, इसके लंबे-चौड़े मनसूबे बाँधना भी उसे अनावश्यक प्रतीत होता है। मनोयोगपूर्वक सतत श्रम की साधना चलती ही रहती है, विघ्न-अवरोध न आते हों, सो बात भी नहीं, उनसे भी जैसे बनता है, निपटता रहता है, पर उपेक्षा कभी भी खेत की नहीं होती, उसकी आवश्यकता पूरी किए बिना चैन भी नहीं पड़ता। समयानुसार फसल पकती भी है। अनाज भी पैदा होता है। उसे ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ घर ले जाता है। कितने मन अनाज पैदा होना है, यह कभी सोचा ही नहीं, तो फिर असंतोष का कोई भी कारण नहीं। जो मिला उसे ईश्वरीय उपहार समझा गया। यही किसान की “साधना” है, जिसे वह होश सँभालने के दिन से लेकर मरण पर्यंत सतत निष्ठा के साथ चलाता ही रहता है। न विश्राम, न थकान, न ऊब न अन्यमनस्कता। “साधना” कैसे की जाती है और “साधक” को होना कैसा चाहिए, यह “किसान” से सीखा जा सकता है।
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