१२ जुलाई २०२४ शुक्रवार
//आषाढ़शुक्लपक्ष षष्ठी २०८१ //ऋषि चिंतन
वृद्धावस्था को शानदार बनाइए संसार के अन्य सारे देशों से अधिक वृद्धों का आदर भारत में होता रहा है, इस समय भी वही मान्यता है और शायद भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के आधार पर यह मान्यता आगे भी बनी रहेगी, किंतु जबकि वृद्धजन अपनी ओर से इस महान मान्यता को हिलने न दें।”
गुरु-आदर की मान्यता बनाए रहने के लिए वृद्धों का कर्त्तव्य कि वे किसी न किसी प्रकार से अपनी उपयोगिता बनाए रहें और जहां तक संभव हो परिवार पर बोझ न बनें। वे वृद्धावस्था में भी कोई न कोई ऐसा काम करते रह सकते हैं जो उनके करने योग्य हो। *उन्हें इन भावना से निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए कि वे परिवार के गुरुजन है उन्होंने लड़कों को पाला-पोषा है, पढ़ाया-लिखाया और किसी योग्य बनाया है। इसलिए बेटे-पोतों से बैठे-बैठे सेवा, लेना उनका अधिकार है। यह ठीक है कि हमारे गुरुजन उस अधिकार के सर्वथा अधिकारी हैं। उनकी यथासाध्य सेवा होनी ही चाहिए। फिर भी यदि अपने इस अधिकार को यथासंभव अनुपयुक्त ही रहने दें तो उनकी गुरु की गरिमा कई गुना बढ़ जाए और वे सेवा ही नहीं अधिकाधिक श्रद्धा व पूजा के पात्र बनकर न जाने कितना सम्मानित जीवनयापन करें ? उनकी प्रजा उन्हें हाथोंहाथ लिए रहे और सेवा-शुश्रूषा के साथ रहकर कुछ. न करने और आराम से बैठने के लिए प्रार्थना करती रहे। कदाचित अपने नैतिक अधिकार के उपयोग की अपेक्षा उनका सक्रिय रहना उन्हें अधिक सुखी बना सकता है। इसलिए ही मनीषी व्यक्तियों ने अधिकार से अधिक त्याग करने की भावना को महत्त्व दिया है।
फिर निष्क्रिय रहने से शरीर में शिथिलता, बुद्धि में आलस्य आता है। जिससे मनुष्य-परिवार पर क्या, स्वयं अपने पर भारस्वरूप बन जाता है। संतानों के बहुत कुछ समर्थ एवं संपन्न होने पर भी यथासंभव यदि उनके आभार से बचा रहा जा सके तो शायद जीवन का वह अंतिम चरण जवानी की कर्मठता से भी अधिक मेहनती तथा माननीय हो। जो वृद्धजन इस गौरव को ले सकें, वे अवश्य लें। उन्हें बेटे-पोतों की कमाई खाने और सेवा लेने की सौभाग्यपूर्ण भावुकता से बचने का ही प्रयत्न करना चाहिए।