१५ जुलाई २०२४ सोमवार
//आषाढ़ शुक्लपक्ष नवमी २०८१ //ऋषि चिंतन
वाणी का सदुपयोग ही करें ध्वंस के लिए अनेक अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार हुआ है, पर सृजन संवर्धन की क्षमता की अमृत वर्षा मात्र “वाणी” से ही हो सकती है। यो दुरुपयोग से तो “अमृत” भी “विष” हो सकता है और वचन भी पतन का, विग्रह-विद्रोह का निमित्त कारण बन सकता है। महाभारत की जड़ में “कटु भाषण” की ही प्रधान भूमिका थी।
घरों में मचे रहने वाले कलह-विग्रह में “वाणी” के साथ जुड़ी हुई अनगढ़ता ही प्रधान कारण रही होती है। बिलगाव से लेकर विद्रोह तक के अनेक प्रसंगों के पीछे वस्तुतः कोई बड़े कारण नहीं रहे होते, “वाणी” के उलट-फेर ही वे जाल-जंजाल बुनते रहते हैं-जिनके फेर में पड़कर कितने ही भटकते, टकराते और बेमौत मरते हैं। असंस्कृत “वाणी” ने संसार का जितना अहित किया है उतना और किसी कारण से कदाचित ही कभी बन पड़ा हो।
*यह भी विचारणीय है कि जिसके विकृत होने पर अनर्थ हो सकते हैं, उसके सुसंस्कृत होने पर न जाने कितनी सिद्धियाँ-विभूतियाँ हस्तगत हो सकती हैं, पर लोगों को क्या कहा जाए जो अपनी जीभ के वरदान न तो खुली आँखों से देख पाते हैं और न उसकी शक्ति सामर्थ्य का अनुमान लगा सकने में समर्थ हो पाते हैं। *प्रसुप्त स्तर की असाधारण, अलौकिक, अतींद्रिय स्थिति का रहस्य भले ही उतनी सरलता से विदित न हो सके, पर “जिह्वा” के प्रत्यक्ष चमत्कार तो हाथोंहाथ समझे जा सकते हैं।* नकद धर्म की तरह उसका परिपूर्ण लाभ प्रत्यक्ष ही उपलब्ध किया जा सकता है। “वाणी” सरस्वती है, गंगा जैसी पावन और शीतल जलधारा बहाने वाली भी, देवता उसी के अग्रभाग में बिराजते हैं। ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ कंठ में बिराजती है, नाद ब्रह्म के रूप में संगीत बनकर वाणी ही निनादित होती है। रसास्वादन के अन्यान्य केंद्र भी हो सकते हैं, पर “वाणी” द्वारा की गई अमृत वर्षा से अधिक मंत्रमुग्ध कर देने वाली सरसता इस विश्व ब्रह्मांड में अन्यत्र कहीं भी तो नहीं। वह बच्चे की “तोतली वाणी” से लेकर ब्रह्मवक्ताओं के कायाकल्प करने वाले अनुदानों तक में अपने-अपने ढंग की “अमृत वर्षा” करती हुई देखी जा सकती है। “शाप” और “वरदान” उसी के चमत्कार हैं।
भाषण एवं जनगायन की प्रक्रिया पृष्ठ-३पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सीए राधेश्याम कासट ,इंदौर 9425058354