🥀 १६ जुलाई २०२४ मंगलवार 🥀
//5 शुक्लपक्ष दशमी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖हम विचार क्यों नहीं करते ?➖
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👉 “जीवन के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ी हुई एक कुटेब चटोरेपन की है।” सृष्टि के सभी प्राणी अपना स्वाभाविक आहार कच्चे रूप में प्राप्त करते हैं, कोई प्राणी अपने भोजन को पकाता, भूनता, तलता, मिर्च-मसाले, शकर आदि के आधार पर चटपटा नहीं बनाता । मनुष्य ने पाक कला सीखी, जायकेदार व्यंजन बनाना और स्वाद के नाम पर अभक्ष्य खाना आरंभ कर दिया । फलतः पाचनतंत्र खराब हुआ, अनेकानेक रोग पीछे पड़े और जीवन अवधि में भारी कटौती हो गई । यदि यह कुटेब न अपनाई गई होती, उपयुक्त शाकाहार पर निर्भर रहा गया होता तो प्रायः आधे आहार से काम चल जाता । पकने में लगने वाला श्रम और धन बर्बाद न होता । पेट ठीक बना रहता, शरीर में शक्ति रहती और लंबा जीवन जीने का अवसर मिलता, पर मनुष्य है जो चटोरा बनकर गुलाम रहने में ही प्रसन्नता अनुभव करता है । व्यंजनों में अपनी रुचि बढ़ाता ही जाता है। फलतः दुर्बलता रुग्णता और अकाल मृत्यु को न्यौत बुलाता है, इस “समझदारी” को “नासमझी” न कहा जाए तो और क्या कहें ?
👉 लोग घरों में रहते हैं, पर यह आवश्यक नहीं समझते कि घर की बनावट ऐसी हो जिसमें धूप और हवा का आवागमन पूरी तरह होता रहे किंतु देखा जाता है कि झोंपड़ी में रहने की अपेक्षा ऐसे पुराने ढर्रे के घर में लोग रहते हैं जिनमें न धूप पहुंचती है और न हवा । फलतः सड़न- शीलन भरे मकानों में जिन्दगी काटते, बच्चे जनते और सामान सरंजाम की गंदगी बढ़ाते रहते हैं । आहार, पानी और हवा की सफाई पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया जाता-फलतः आरोग्य जैसी संपदा को निरंतर क्षति पहुंचती रहती है ।
👉 यदि मनुष्य ने प्राकृतिक जीवन जिया होता, प्रकृति के सानिध्य में रहा होता, आहार-विहार में व्यतिक्रम न किया होता, धूप हवा के संपर्क से अपने को बचाकर न रखा होता तो आरोग्य जैसी बहुमूल्य संपदा को गंवा बैठने का त्रास न सहना पड़ता ।
👉 यों रोगों से डर भी लगता है । उसके कारण शारीरिक पीड़ा, काम का हर्ज, चिकित्सा का खर्चीला भार, घर वालों की परिचर्या में व्यस्तता. दूसरों को छूत लगने की संभावना जैसी अनेकों कठिनाइयां सामने आती हैं। “आरोग्य” स्वाभाविक है और रुग्णता अस्वाभाविक, “आरोग्य” भगवान का वरदान है जो सृष्टि के समस्त प्राणियों को अजस्र अनुदान के रूप में मिला है । मात्र मनुष्य ही एक ऐसा अभागा प्राणी है जिसने प्रकृति अनुशासन को तोड़ते हुए अवांछनीय कदम उठाए और रोगों के समुदाय न्यौत बुलाए । कर्म का फल परलोक में मिलता है यह बात अन्य किन्हीं पापों के बारे में तो कही भी जा सकती है किंतु जीवनचर्या में “प्रकृति की अवज्ञा” ऐसा पाप है कि उसका दण्ड हाथोंहाथ इसी जीवन में निश्चित रूप से भुगतना पड़ता है।
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