👉 आमतौर से लोगों में “आलस्य”-“प्रमाद” की भरमार पाई जाती है। ये बैठे-ठाले दिन गुजारना चाहते हैं। हलके कामों में हाथ डालते हैं और धीरे-धीरे मनमौजीपन से उन्हें पूरा करते हैं, उन्हें आधा-अधूरा छोड देते हैं। जितने समय में जो काम हो सकता है, उसकी अपेक्षा के कई गुना समय नष्ट करने के उपरांत पूरा करते हैं। जो बन पहता है वह भी लंगड़ा, पंगा, काना, कुरूप होता है। उसमें ढेरों त्रुटियां रहती है। समय तो अधिक नष्ट होता ही है। “फूहडपन” से किये गए काम का स्वरूप भी ऐसा देखा जाता है, जिसमें कर्ता की प्रशंसा, प्रसन्नता प्राप्त होना तो दूर, उल्टे तिरस्कार – फटकार का सामना करना पड़ता है। ऐसे कामों का बाजारू मूल्य भी अति स्वल्प होता है, जबकि यदि उसी काम को मन लगाकर किया गया होता तो *”कर्तृत्व” सम्मानित होता और किए गए “श्रम” का संतोषजनक प्रतिफल भी मिलता, पर उस “आलस्य” – “अनुत्साह” को क्या कहा जाए, जो अपने स्पर्श में आने पर सोने को मिट्टी बना देने के लिए कुख्यात है । 👉आलस्य-प्रमाद में, दुर्व्यसनों और कुसंगों में जिनका समय लगा वे क्रमशः अधिक अधःपतन के गर्त में गिरते चले गए हैं। अवसर निकल जाने पर उन्हें अपनी दुर्गति पर पश्चात्ताप ही करते रहना पड़ा है।
👉आमतौर से श्रम साधना का महत्त्व समझा नहीं जाता, उसे लोग ढर्रे की दिनचर्या पूरी करने में ही ज्यों-त्यों, करके खपा देते हैं। कार्य को अन्यमनस्क भाव से करने और मनोयोग जोड़ते हुए करने में जमीन-आसमान जितना अंतर होता है। बेमन से बेगार भुगतने की
तरह किया गया काम सदा फूहड़ स्तर का ही बन पड़ता है। न उसमें सौंदर्य होता है, न चमक देखने को मिलती है और न स्तर ही सराहना करने जैसा होता है। जब श्रम के साथ मनोयोग नहीं ही लगा है तो फिर उसमें न प्रखरता शामिल हो सकेगी और न प्रतिभा को ही काम करते समझा जा सकेगा। ऐसे काम गिनती में कितने ही और कई प्रकार के हो सकते हैं, पर उनमें वह प्राण नहीं होता है जो उत्कृष्टता के उच्च लक्ष्य को छू सके, दूसरों के लिए आदर्श और अनुकरणीय-अभिनंदनीय बन सके।
👉ढर्रे का काम ज्यों-त्यों करके निपटाया जा सकता है. पर उसे सुचारू रूप से संपन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें शारीरिक गतिविधियां ही सीमित होकर न रह जाएं। उसके साथ मनोयोग भी पूरी तरह लगाया जाए । काम को दिलचस्पी का विषय समझकर किया जाए और उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर खिलाड़ियों की तरह पूरी तत्परता से संपन्न किया जाए । ऐसे ही काम सफल, सुघड़ और सराहनीय स्तर के बन पड़ते हैं । कर्ता की कुशलता भी उन्हीं से बढ़ती है। प्रशंसा भी उन्हीं की होती है और सत्परिणाम भी वे ही बनते हैं ।
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