आहार के विषय में आर्ष ग्रंथों का मत “उपनिषदों” में “अन्न” के संबंध में अनेकों आदेश भरे पड़े हैं । “तैत्तरीय उपनिषद्” में इस संबंध में अधिक प्रकाश डाला गया है और आत्म-कल्याण के इच्छुकों को “आहारशुद्धि” का विशेष रूप से ध्यान रखने का निर्देश किया गया है-
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते। याः काश्च पृथिवीः श्रिताः। अथो अन्ने नैव जीवन्ति। अथैनदपियन्त्यन्ततः । अन्नः हि भूतानां जेष्ठम् । तस्मात्सर्वोषधयमुत्यते । सर्व वै तेऽन्नऽमाप्नुवन्ति येन ब्रह्मोपासते । (अर्थ) इस पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। फिर अन्न से ही जीते हैं। अंत में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिए वह औषधि रूप कहा जाता है। जो साधक अन्न की ब्रह्म रूप में उपासना करते हैं, वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।
*”तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमषादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैष पूर्णः सवा एष पुरुष विध एव । तैत्तिरीय २/२ (अर्थ) इस अन्न-रसमय शरीर के भीतर जो प्राणमय पुरुष है वह अन्न से व्याप्त है। यह प्राणमय पुरुष ही आत्मा है।
अन्नं न निन्द्यात् । तद् व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्। स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठिति । अन्नवानन्नादो भवति। महान भवति। प्रजया – पशुभिब्रह्मवर्चसेन। महान कीर्त्या। तैत्तिरीय ३/७
अन्न की निंदा न करे, यह व्रत है। प्राण ही अन्न है। शरीर प्राण पर आधारित है। इसलिए वह अन्न में ही स्थित है। जो मनुष्य यह जान लेता है कि मैं अन्न में ही प्रतिष्ठित हूँ वह प्रतिष्ठावान हो जाता है । अन्नवान हो जाता है। प्रजावान हो जाता है, पशुवान भी । वह ब्रह्म तेज से संपन्न होकर महान बनता है। कीर्ति से संपन्न होकर भी महान बनता है । आगे चलकर अष्टम् अनुवाक में और भी निर्देश है –
अन्नं न परिचक्षीत। तद व्रतम्। अन्नं बहु कुर्वीत तद् व्रतम। (अर्थ) अन्न की अवहेलना न करें। यह व्रत है। अन्न को बहुत बढ़ाएँ। यह व्रत है।
हा३वु, हा३वु, हा३वु । अहमन्नादा ३हमन्नादो इऽहमन्नादः । अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्। – तैत्तिरीय ३/१० (अर्थ) आश्चर्य ! आश्चर्य !! आश्चर्य !!! मैं अन्न हूँ! मैं अन्न हूँ !! मैं अन्न हूँ !!! मैं ही अन्न का भोक्ता हूँ! मैं ही अन्न का भोक्ता हूँ ! मैं ही अन्न का भोक्ता हूँ !
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलभ्ये सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्ष स्तस्यै मृदित कषायाय तमसस्पादर्शयति भगवान् सनत्कुमारः । (अर्थ) जब आहार शुद्ध होता है तब सत्व यानी अंतःकरण शुद्ध होता है। अंतःकरण शुद्ध होने पर विवेक बुद्धि ठीक काम करती है। उस विवेक से अज्ञानजन्य बंधन-ग्रंथियाँ खुलती हैं। फिर परमतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह ज्ञान नारद को भगवान सनत्कुमार ने दिया।
“अथर्ववेद” में “अनुपयुक्त” “अन्न” को “त्याज्य” ठहराया गया है। प्राचीनकाल में हर व्यक्ति आहार ग्रहण करने से पूर्व यह देखता था कि यह “अन्न” किस प्रकार के व्यक्ति के द्वारा उपार्जित एवं निर्मित है। उसमें थोड़ा भी दोष होने पर उसे त्याग दिया जाता था। केवल पुण्यात्माओं का “अन्न” ही लोग स्वीकार करते थे। किसी के पुण्यात्मा होने की कसौटी यह भी थी कि उसका “अन्न” ग्रहण करते हैं या नहीं । अथर्ववेद ९/६/२५ में कहा गया है सर्वो वा एष् जग्ध पाम्पा यस्यान्नमश्नन्ति अर्थात वही व्यक्ति पुण्यात्मा है जिसका “अन्न” दूसरे खाते हैं।