अध्यात्मवादी भावनाशील होता है |

🥀 ०७ सितंबर २०२४ शनिवार 🥀
//भाद्रप्रद शुक्लपक्ष चतुर्थी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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अध्यात्मवादी भावनाशील होता है
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👉 सबसे बड़ा और सबसे प्रथम “विभूतिवान” व्यक्ति वह है, जिसके “अंतःकरण” में “उत्कृष्ट” जीवन जीने और “आदर्शवादी” गतिविधियाँ अपनाने के लिए निरंतर उत्साह उमड़ता है। ऐसा साहस उत्पन्न होता रहता है जो लोभ, मोह के भवबंधनों के रोके रुक ही न सके। व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के जाल-जंजाल में ही आमतौर से नर-पशुओं की क्षमताएँ गलती- जलती रहती हैं। आमतौर से लोग परिवार वालों की “मनोकामनाएँ” पूरी करते रहने में जुटे खपे रहते हैं। इस चक्रव्यूह को वेध सकना उन्हीं के लिए संभव है, जिनके भीतर आत्मबोध का आलोक प्रस्फुटित होने लगे। “भावनाशील” व्यक्ति ही ऐसा साहसपूर्ण निर्णय करते हैं कि निर्वाहमात्र के साधनों में संतोष करें और परिवार को उतना ही संपन्न बनाने तक अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानेंगे, जितने में कि अपने समाज के औसत नागरिक को जीवनयापन करना पड़ता है। *”भावनाशीलता” को दिव्यविभूति की सार्थकता के लिए इस प्रकार का साहसिक निर्णय नितांत आवश्यक है; अन्यथा परमार्थ के लंबे-चौड़े सपने मात्र कल्पना ही बनकर रह जाएँगे। अध्यात्मवादी, धर्मपरायण, त्यागी, तपस्वी, परमार्थी, संत-सुधारक, ब्रह्मपरायण महामानव स्तर के देवपुरुष वही हो सकते हैं, जिन्हें भावना की विभूति भगवान ने दी हो। कृपण और संकीर्ण लोगों को इस प्रकार का सौभाग्य मिल ही नहीं सकता। स्वार्थपरता का पिशाच उन्हें कुछ करने ही नहीं देता। यदि उसकी पकड़ से एक कदम आगे बढ़ा भी जाए तो वह दूसरे बाड़े में और भी अधिक मजबूत रस्सों से पकड़कर जकड़ देता है। सांसारिक लोभ-मोह से ऊँचा उठकर त्याग- परमार्थ की बात सोचने वाले लोग भी प्रायः एक कदम ही चलने के बाद फिर औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार, पूजा-प्रतिष्ठा जैसे व्यक्तिगत लोभ-लाभ ही फिर नए रूप में मार्ग को घेरकर खड़े हो जाते हैं। “स्वार्थी” मनुष्य इस लोक की संपदा के बदले “परलोक” की संपदा चाहने लगता है। यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी है। छिटपुट दान-पुण्य करने वाले स्वर्ग में आलीशान भवन और अजस्रवैभव पाने के लिए दांव लगाते हैं। “स्वार्थ” पूर्ति के बिना चैन नहीं, संसार के पैसे का लोभ घटा तो “स्वर्ग” के “ऐश्वर्य” का लालच सिर पर सवार हो गया।” । कोल्हू के बैल की दिशा भर बदली, घेरा ज्यों का त्यों ही रहा । चक्कर जैसे का तैसा ही लगता रहा ।