दोस्तों आज की कहानी हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम कहानी पर आधारित है यह एक पौराणिक प्रेमकथा है। महाभारत काल में उपजी यह प्रेम कथा बहुत मार्मिक है। महाकवि कालिदास की अमर रचना अभिज्ञान शाकुंतलम में इसका उल्लेख किया गया है तो चलिए दोस्तों आज की कहानी शुरू करते हैं
दुर्वासा ऋषि ने शकुंतला को क्या श्राप दिया था किसके श्राप के कारण दुष्यंत शकुंतला को भूल गया था ?किसके कहने पर मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या को भंग किया था ? तो चलिए दोस्तों आज की कहानी शुरू करते हैं
महर्षि विश्वामित्र जन्म से एक ब्राह्मण नहीं थे, लेकिन उन्होंने अपने तप और उग्र तपस्या के बल से लगभग 1000 वर्षो की तपस्या के पश्चात ऋषि होने का वरदान प्राप्त कर लिया. लेकिन विश्वामित्र ब्रह्मा-ऋषि बनना चाहते थे. इसलिए पुष्कर के तट पर जाकर पुन: तपस्या शुरू कर दी. ऋषि विश्वामित्र की इस कठोर तपस्या से राजा इंद्र विचार में पड़ गए. इंद्र देव को डर था की कहीं विश्वामित्र इन्द्रासन नहीं मांग ले. यह विचार कर तपस्या भंग करने के लिए अपनी अप्सरा मेनका को एक कन्या के रूप में धरती पर भेजा.
नित्य की भांति ऋषि विश्वामित्र अपने दैनिक कार्यो में लगे हुए थे. तभी पुष्कर सर के तट पर मेनका नहा रही थी. मेनका को देखकर विश्वामित्र को काम का मोह हो गया और मेनका से परिचय किया. विश्वामित्र ने मेनका को अपने साथ कुटिया में रहने का निमंत्रण दिया. अप्सरा मेनका ने ऋषि विश्वामित्र को काम-पाश में बांध लिया और उनके साथ कुटीया में रहने लगी.
विश्वामित्र और मेनका दस वर्षो तक साथ रहे, इसके दौरान दोनों के संयोग से एक पुत्री हुई. विश्वमित्र को महसूस हुआ की उनकी तपस्या तो भंग हो गई, उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों से पता लगाया की ये सब देवताओं का किया कराया हैं.
ऋषि विश्वामित्र के गुस्से से मेनका कांपने लगी. लेकिन विश्वामित्र ने मेनका पर कोई क्रोध नहीं किया और उसको वहां से जाने को कह दिया. महर्षि विश्वामित्र ने काम पर विजय प्राप्त करने के लिए कामदेव की तपस्या करने का निश्चय किया. इसके लिए विश्वामित्र ने अपनी पुत्री को ऋषि कण्व के आश्रम पर छोड़ दिया. और स्वयं उतर में कोशी नदी के किनारे जाकर तपस्या करने लगे.
अगले दिन जब ऋषि कण्व ने एक कन्या को शकुओ से रक्षा करते हुए देखा, तो उन्होंने उस कन्या को उठा लिया और उसका पालन पोषण करने का निश्चय किया. शकुओ के पास मिलने के कारण उसका नाम शकुंतला रख दिया. कुछ समय बीतने पर शकुंतला युवती हो गई, मेनका की ही तरह शकुंतला भी बेहद रूपवान थीं. एक दिन हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत शिकार करते हुए ऋषि कण्व के आश्रम तक पहुंच गए और राजा दुष्यंत ने आश्रम के बाहर से ऋषि को आवाज लगाई, , आवाज सुनकर शकुंतला आश्रम से बाहर निकलीं और बोलीं कि ऋषि अभी आश्रम में नहीं हैं वह तीर्थ यात्रा पर गए हैं. साथ ही शकुंतला ने राजा दुष्यंत का आश्रम में स्वागत किया.
शकुंतला को देख राजा दुष्यंत बोले महर्षि तो ब्रह्मचारी हैं, तो आप उनकी पुत्री कैसे हुईं. तब शकुंतला ने बताया कि वह महर्षि की गोद ली हुई संतान हैं, असल में उसके माता पिता अप्सरा मेनका और विश्वामित्र हैं. शकुंतला के रूप और मधुर वाणी सुनकर राजा पहले ही मोहित हो चुके थें
शकुंतला से बात करते हुए राजा दुष्यंत ने कहा कि तुम मुझे बेहद पसंद आईं, अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं.
शकुंतला भी राजा दुष्यंत को पसंद करने लगी थीं, इसलिए राजा दुष्यंत का विवाह प्रस्ताव सुनकर शकुंतला ने भी हां कर दी. जिसके बाद दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया.विवाह के बाद कुछ समय शकुंतला के साथ बिताने के बाद राजा दुष्यंत वापस अपने राज्य हस्तिनापुर लौटने लगे तो उन्होंने दौबारा लौटकर शकुंतला को अपने साथ ले जाने का वचन दिया और निशानी के रूप में उन्होंने अपनी राज मुद्रिका शकुंतला की उंगली में पहना दी.
श्राप के कारण दुष्यंत भूले अपना प्रेम
एक दिन कण्व ऋषि के आश्रम में दुर्वासा ऋषि आए. दुर्वासा ऋषि ने आश्रम के बाहर से आवाज लगाई, लेकिन उस समय शकुंतला पूरी तरह राजा दुष्यंत की यादों में खोई हुई थीं, इस कारण वह उनकी आवाज सुन नहीं पाई. ऋषि को लगा कि शकुंतला उनका अपमान कर रही हैं और उसी क्षण ऋषि ने शकुंतला को श्राप दिया कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह मुझे भूल जाएगा. यह सुनकर शकुंतला का ध्यान टूटा तो उन्होंने ऋषि से क्षमा मांगी, जिसके बाद ऋषि ने शकुंतला के उपाय बताया कि उसका दिया कोई प्रतीक चिन्ह होगा, जिसे देखकर उसे तू याद आ जाएगी और यह कहकर ऋषि वहां से चले गए.
एक दिन कण्व ऋषि ने शकुंतला को कहा कि अब तुमको अपने पति के पास जाना चाहिए. विवाहित स्त्री का इस तरह रहना कीर्ति और धर्म का घातक अपमान हैं. शकुंतला अपनी माँ समान दासी गौतमी के साथ हस्तिनापुर के लिए निकल गयी.
रास्ते में गंगा से पानी पिने के लिए जैसे ही शकुंतला ने अपनी अंजलि भरी तो असकी अंगूठी पानी अन्दर गिर गयी, लेकिन उसको इसका पता नहीं चला. जब शकुंतला हस्तिनापुर पहुंची तो उसने स्वयं को उनकी पत्नी बताते हुए कहा, आपके राज्य का सम्राट उनकी कोख में पल रहा हैं. तब राजा दुष्यंत ने तापसी स्त्री कहते हुए शकुंतला का तिरस्कार किया.
तब गौतमी ने कहा कि तुम इनको अपनी अंगूठी दिखाओ. शकुंतला ने अपनी अंगूठी ढूंढने की कोशिश की लेकिन, उसको नहीं मिली.
तब राजा दुष्यंत ने उसको वहां से जाने को कहा. गौतमी ने कहा कि हम वापस ऋषि कण्व के आश्रम लौट चलते हैं. लेकिन एक दास ने कहा की हम शकुंतला को यहीं पर छोड़कर चलेंगे. इतना कहकर दासी लोग वहां से निकल दिए. राजा दुष्यंत के महामंत्री ने शकुंतला के प्रसव तक उसको अपने आश्रम पर ठहरने का निवेदन किया. शकुंतला की अनुमति के साथ दोनों आश्रम की तरफ निकल पड़े. रास्ते में शकुंतला की माता मेनका प्रकट हुई और शकुंतला को अपने साथ लेकर अदृश्य हो गई. मेनका शकुंतला को लेकर ऋषि मारीच के आश्रम गयी
और उसको वहां छोड़कर वापस स्वर्गलोक चली गई. एक दिन राजा के कर्मचारियों ने एक मछुआरे को राजा की अंगूठी चुराने के जुर्म में गिरफ्तार किया, और राजा के सामने पेश किया, मछुआरे ने राजा से विनती की कि महाराज ये अंगूठी मुझे प्रात: काल एक मछली के पेट से मिली. राजा दुष्यंत उस अंगूठी देखकर सब कुछ जान गये, और उनको अपनी भूल और शकुंतला के तिरस्कार करने का अफ़सोस हुआ. राजा दुष्यंत ने अपने मंत्री को बुलाया और शकुंतला का पता पूछा.
मेनका के साथ अदृश्य होने की बात सुनकर राजा दुखी हो गये. लगभग छ साल बित चुके थे. एक दिन भगवान् इंद्र का दूत राजा दुष्यंत के दरबार में आया और दानवो के खिलाफ युद्ध में देवताओ की सहायता की करने का निवेदन किया. दानवो और देवताओ के बीच में घमासान युद्ध हुआ, देवताओ ने विजय प्राप्त की. जब दूत पुन: दुष्यंत को धरती पर छोड़ने आये तो एक अज्ञात स्थान पर छोड़ दिया. राजा दुष्यंत जंगल से होकर आगे बढ़ रहे थे.
राजा दुष्यंत ने सुना कि कोई बच्चा खेल रहा हैं, ढूंढते ढूंढते दुष्यंत उस बच्चे के पास पहुँच गए. एक बच्चा शेर के साथ खेल रहा था, और उसका मुह खोलकर उसके दांत की गिनती कर रहा था. तब दो दासिया, उस बच्चे को आश्रम ले जाने के लिए आयी. दासियों के आग्रह पर भी वह बच्चा वहां से चलने को तैयार नहीं था. तब सर्वदमन के हाथ से जंतर गिर गया. राजा दुष्यंत ने उस जंतर को उठा लिया, और अपने साथ खलने को आग्रह किया.
दासियों ने कहा की आपको उस जंतर को नहीं छूना चाहिए, उसको छूने का अधिकार केवल इनके माता पिता का हैं. तब राजा दुष्यंत दासियों से सर्वदमन की माँ से मिलने का निवेदन किया. दासियाँ राजा दुष्यंत को शकुंतला के पास लेकर गयी. दोनों ने एक दुसरे को पहचान लिया और एक दुसरे से क्षमा मांगने लगे. तब शकुंतला ने सर्वदमन को अपने पिता से परिचय करवाया. राजा दुष्यंत ने शकुंतला को महल चलने का प्रस्ताव रखा.
शकुंतला ने मह्रिषी मारीच की अनुमति लेने को कहा. महर्षि मारीच की अनुमति और आशीवार्द सहित तीनो हस्तिनापुर लौट जाते हैं. इस तरह शकुंतला और दुष्यंत का फिर से मिलन हुआ और दोनों अपने राज्य में खुशहाल जिंदगी जीने लगे। सर्वदमन जो कि आगे चलकर राजा भरत के नाम से प्रसिद्ध हुआ.कहा जाता है कि हमारे देश का नाम भारत इसी सम्राट भरत के नाम पर पड़ा है तो यह थी राजा दुष्यंत और शकुंतला की पौराणिक प्रेम कथा।