🥀 १५ सितंबर २०२४ रविवार 🥀
//भाद्रप्रद शुक्लपक्ष द्वादशी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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उपासना का लाभ कब मिलता है
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👉 स्वाति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती हैं । अमृत उसी को जीवन दे सकता है, जिसका मुंह खुला हुआ है। प्रकाश का लाभ आंखों वाले ही उठा सकते हैं । इन पात्रताओं के अभाव में “स्वाति” का जल, “अमृत” अथवा “प्रकाश” कितना ही अधिक क्यों न हो उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। ठीक यही बात देव उपासना के सम्बन्ध में लागू होती है। घृत सेवन का लाभ वही उठा सकता है जिसकी पाचन क्रिया ठीक हो। “देवता” और “मन्त्रों” का लाभ वे ही उठा पाते हैं जिन्होंने “व्यक्तित्व” को भीतर और बाहर से- “विचार” और “आचार” से “परिष्कृत” बनाने की साधना कर ली है। औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है जो बताये हुये अनुपात और पथ्य का भी ठीक तरह प्रयोग करते हैं। अतः पहले “आत्म उपासना” फिर “देव उपासना” की शिक्षा । ब्रह्म विद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है। लोग उतावली में मन्त्र और देवता के भगवान और भक्ति के पोछे पड़ जाते हैं इससे पहले “आत्मशोधन” की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते। फलतः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाये, उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है उसे उतना ही मिलेगा। निरन्तर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुये पात्रों में उतना ही जल रह पाता है जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर जगह को बढ़ाये बिना कोई बरतन बादलों से बड़ी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता “देवता” और “मन्त्रों” से लाभ उठाने के लिये भी “पात्रता” नितान्त आवश्यक है।
👉 “गुण”, “कर्म”, “स्वभाव” की दृष्टि से-“आचरण” और “चिंतन” की दृष्टि से यदि मनुष्य उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से अपने को सुसम्पन्न कर ले तो उनके कषाय कल्मषों की कालिमा हट सकती है और अन्तःकरण तथा व्यक्तित्व शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं निर्मल बन सकता है। ऐसा व्यक्ति मन्त्र, उपासना, तपश्चर्या का समुचित लाभ उठा सकता है और देवताओं के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है। जब तक यह “पात्रता” से न हो तब तक उत्कृष्ट वरदान माँगने की दूर-दर्शिता ही उत्पन्न न होगी और साधना के पुरुषार्थ से कुछ भौतिक लाभ भले मिल जाय, देवत्व का एक कण भी उसे प्राप्त न होगा और आसुरी भूमिका पर कोई सिद्धि मिल भी जाय तो अन्ततः उसके लिये घातक ही सिद्ध होगी। असुरों की साधना और उसके आधार पर मिली हुई सिद्धियों से उनका अन्तत: सर्वनाश ही उत्पन्न हुआ । अध्यात्म विज्ञान का लाभ लेने के लिए, साधक का अंत: करण एवं व्यक्तित्व जितना निर्मल होगा, उतनी ही उसकी उपासना सफल होगी ।
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