जीवात्मा के विषय में हमारी समझ परिपक्व होना ही चाहिए

🥀०९ अक्टूबर २०२४ बुधवार🥀
//आश्विन शुक्ल पक्ष षष्ठी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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जीवात्मा के विषय में हमारी समझ
👉 परिपक्व होना ही चाहिए 👈
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👉 “जीवात्मा” आखिर है क्या ? उसका लक्षण, स्वरूप, स्वभाव और लक्ष्य क्या है ? इस प्रश्न पर विज्ञान अपने बचपन में विरोधी था, वह कहता था- जड़ तत्त्वों के, अमुक रसायनों के एक विशेष संयोग- सम्मिश्रण का नाम ही “जीव” है। उसकी सत्ता वनस्पति वर्ग की है। अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी एक चलता-फिरता पेड़ है। रासायनिक संयोग उसे जन्म देते, बढ़ाते और बिगाड़ देते हैं। ग्रामोफोन के रिकार्डों पर सुई का संयोग होने से आवाज निकलती है और वह संयोग, वियोग में बदलते ही ध्वनि-प्रवाह बंद हो जाता है। जीव अमुक रसायनों के अमुक मात्रा में मिलने से उत्पन्न होता है और वियोग होते ही उसकी सत्ता समाप्त हो जाती है। अणु अमर हो सकते हैं, पर शरीर ही नहीं, उसकी विशेष स्थिति चेतना भी मरणधर्मा है।
👉 यही था वह प्रतिपादन जो “चार्वाक मुनि” के शब्दों को विज्ञान दोहराता रहा। उसकी दलील यही थी- “भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमने कुतः”‘ शरीर नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है। इस मान्यता का निष्कर्ष यही निकला कि जब शरीर के साथ ही अस्तित्व नष्ट होते हैं, तो परलोक का भय क्या करना ? जितना सुख जिस प्रकार भी संभव हो लूट लेना चाहिए; इसी में जीवन की सार्थकता है। नास्तिकवाद ने जनसाधारण को यही सिखाया “यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” जब तक जियो, कर्ज से लेकर भी घी पियो। चूँकि अब घी भी हजम नहीं होता और वह तथाकथित सभ्यता का चिह्न भी नहीं है इसलिए आधुनिक चार्वाकों ने “कुकर्म करके धना कमाओ-नशा पियो और मजा उड़ाओ” के सूत्र रच दिए। इन दिनो जनमानस इसी प्रेरणा का अनुगमन कर रहा है।
👉 भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेता श्री पियरे दी कामटे टुनाऊ ने विज्ञान और व्यक्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए लिखा है “अब हमें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि मनुष्य में अपनी ऐसी चेतना का अस्तित्व मौजूद है, जिसे “आत्मा ” कहा जा सके । यह “आत्मा ” विश्वात्मा के साथ पूरी तरह संबद्ध है । उसे पोषण इस विश्वात्मा से मिलता है । चूंकि विश्वचेतना अमर है, इसलिए उसकी छोटी इकाई “आत्मा” को भी अमर ही होना चाहिए ।”