अधीर होना लड़कपन का चिन्ह है

🥀१५ अक्टूबर २०२४ मंगलवार🥀
//आश्विनशुक्लपक्ष त्रयोदशी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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अधीर होना लड़कपन का चिन्ह है
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👉 आवेश की अशांत दशा में न तो कोई व्यक्ति “सांसारिक” उन्नति कर सकता है और न “आध्यात्मिक” । कारण यह है कि उन्नति के लिए ऊंचा उठाने के लिए जिस बल की आवश्यकता होती है, वह बल मानसिक अस्थिरता के कारण एकत्रित नहीं हो पाता । “अधीर होना”, हृदय की संकीर्णता और आत्मिक “बालकपन” का चिह्न है। बच्चे जब बाग लगाने का खेल-खेलते हैं, तो उनकी कार्य प्रणाली बड़ी विचित्र होती है। अभी बीज बोया, अभी उसमें खाद-पानी लगाया, अभी दो-चार मिनट के बाद ही बीज को उलट-पलट कर देखते हैं कि बीज में से अंकुर फूटा या नहीं। अब अंकुर नहीं दीखता तो उसे फिर गाड़ देते हैं और दो-चार मिनट बाद फिर देखते हैं। इस प्रकार कई बार देखने पर भी जब वृक्ष उत्पन्न होने की उनकी कल्पना पूरी नहीं होती, तो दूसरा उपाय काम में लाते हैं। वृक्षों की टहनियाँ तोड़कर मिट्टी में गाड़ देते हैं और उससे बाग की लालसा को बुझाने का प्रयत्न करते हैं। उन टहनियों के पत्ते उठा-उठाकर देखते हैं कि फल लगे या नहीं। यदि दस-बीस मिनट में फल नहीं लगते तो कंकड़ों को डोरे से बाँधकर उन टहनियों में लटका देते हैं। इस अधूरे बाग से उन्हें तृप्ति नहीं मिलती। फलतः कुछ देर बाद उस बाग को बिगाड़- बिगाड़ कर चले आते हैं। कितने ही जवान और वृद्ध पुरुष भी उसी प्रकार की बाल-क्रीड़ाएँ अपने जीवन-क्षेत्र में किया करते हैं। किसी काम को बड़े उत्साह से आरंभ करते हैं। इस उत्साह की अति उतावली बन जाती है। कार्य आरंभ हुए देर नहीं होती कि यह देखने लगते हैं कि “सफलता” में अभी कितनी देर है ? जरा भी प्रतीक्षा उन्हें सहन नहीं होती। जब उन्हें थोड़े ही समय में रंगीन कल्पनाएँ पूरी होती नहीं दीखतीं, तो निराश होकर उसे छोड़ बैठते हैं। अनेक कार्यों को आरंभ करना और उन्हें बिगाड़ना ऐसी ही बाल क्रीड़ाएँ वे जीवन भर करते रहते हैं। छोटे बच्चे अपनी आकांक्षा और इच्छापूर्ति के बीच में किसी कठिनाई, दूरी या देरी की कल्पना नहीं कर पाते, इन बाल-क्रीड़ा करने वाले अधीर पुरुषों की भी मनोभूमि ऐसी ही होती है। यदि हथेली पर सरसों न जमी तो खेल बिगाड़ते हुए उन्हें कुछ देर नहीं लगती।
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