🥀१६ अक्टूबर २०२४ बुधवार🥀
//आश्विन शुक्लपक्ष चतुर्दशी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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सफलता पाने के लिए धैर्य अनिवार्य है
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👉 प्राचीन समय में जब शिष्य विद्याध्ययन के लिए जब गुरु के पास जाता था, तो उसे पहले अपने “धैर्य” की परीक्षा देनी होती थी। गौएँ चरानी पड़ती थीं, लकड़ियाँ चुननी पड़ती थीं, उपनिषदों में इस प्रकार की अनेक कथाएँ हैं। इंद्र को भी लंबी अवधि तक इसी प्रकार तपस्यापूर्ण प्रतीक्षा करनी पड़ी थी, जब वह अपने “धैर्य” की परीक्षा दे चुका, तब उसे आवश्यक विद्या प्राप्त हुई। प्राचीनकाल में विज्ञ पुरुष जानते थे कि धैर्यवान पुरुष ही किसी कार्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए “धैर्यवान” स्वभाव वाले छात्रों को ही विद्याध्ययन कराते थे। क्योंकि उनके पढ़ाने का परिश्रम भी अधिकारी छात्रों द्वारा ही सफल हो सकता था। चंचल चित्त वाले, अधीर स्वभाव के मनुष्य का पढ़ना न पढ़ना बराबर है। अक्षरज्ञान हो जाने या अमुक कक्षा का सर्टीफिकेट ले लेने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। प्रमाण प्रत्यक्ष है। आज लाखों-करोड़ों ‘पढ़े’ इधर से उधर घूरे के तिनके चरकर लदते-मरते रहते हैं। कोई कहने लायक पुरुषार्थ उनसे नहीं हो पाता।
👉 आतुरता एवं उतावली का स्वभाव जीवन को असफल बनाने वाला एक भयंकर खतरा है। कर्म का परिपाक होने में समय लगता है। रूई को कपड़े के रूप तक पहुँचने के लिए कई कड़ी मंजिलें पार करनी होती हैं और कठोर व्यवधानों में होकर गुजरना पड़ता है। संक्रांति काल के मध्यवर्ती कार्यक्रम को धैर्यपूर्वक पूरा होने देने की जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, उसे रूई को कपड़े के रूप में देखने की आशा न करनी चाहिए। किया हुआ परिश्रम एक विशिष्ट प्रक्रिया के द्वारा फल बनता है। इसमें देर लगती है और कठिनाई भी आती है। कभी-कभी परिस्थितिवश यह देरी और कठिनाई आवश्यकता से अधिक भी हो सकती है। उसे पार करने के लिए समय और श्रम लगाना पड़ता है। कभी-कभी तो कई बार का प्रयत्न भी सफलता तक नहीं ले पहुँचता, तब अनेक बार अधिक समय तक अविचल धैर्य के साथ जुटे रहकर अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त करना होता है। आतुर मनुष्य इतनी दृढ़ता नहीं रखते, जरा-सी कठिनाई या देरी से वे घबरा जाते हैं और मैदान छोड़कर भाग निकलते हैं। यही भगोड़ापन उनकी पराजयों का इतिहास बनता जाता है।
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