सन्मार्ग की ओर कैसे बढ़ें

🥀२० अक्टूबर २०२४ रविवार🥀
//कार्तिक कृष्णपक्ष तृतीया २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖”सन्मार्ग” की ओर कैसे बढ़ें➖
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👉 “मन” की प्रवृत्ति आमतौर पर अधोमुखी होती है इसलिए “आत्मा” को अपनी बुद्धि और सामर्थ्य का प्रयोग करना चाहिए। मन को बुरे कर्मों से बार-बार हटाने और उसे शुभ कर्मों में लगाए रहने से कुछ दिन में उसकी प्रवृत्ति भी सतोगुणी हो जाती है। पाप करने या बुद्धि का दुरुपयोग करने से ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार उसको लज्जित होना पड़ेगा और उसका सिर झुका रहेगा; पर “सत्कर्म” लौकिक या आत्मिक सभी दृष्टियों से मनुष्य को सुख प्रदान करने वाले ही होते हैं और उनसे अपना आत्माभिमान भी विकसित होता है। शक्तियों और सामर्थ्यो का विकास भी उसी क्रम से होता है।
👉 यह बात तो सभी चाहते हैं कि हमारे “मन” में बुरे विचार कभी न आवें। हम सदा शान्ति और आनन्दमय रहें, दु:ख का भान न हो। इसके लिए लोग प्रयत्न भी करते हैं किन्तु संसार की गति भी कुछ ऐसी है कि मनको आघात पहुँचाने वाली घटनाएँ यहाँ घटती रहती हैं, उन घटनाओं को सहते हुए भी जो मन को वश में रखता है और उसे शुभ संकल्पों से रिक्त नहीं होने देता, ईश्वर की आज्ञाओं का सच्चे मन से वही पालन कर सकता है। जो मन को चञ्चल, अस्थिर या विकारपूर्ण नहीं होने देते वह सच्चे साहसी, वीर और गंभीर होते हैं। इन दैवी सत्प्रवृत्तियों के आधार पर निरन्तर उसे परमात्मा को कृपा प्राप्त होती रहती है और वह आत्म-विकास की साधना में उत्तरोत्तर सफल होता हुआ आगे बढ़ता रहता है।
👉 आत्मा के विकास और ईश्वर की प्राप्ति के लिए केवल दैवी गुण भी चिरकाल तक नहीं टिक सकते, ईश्वर-भक्ति, जप, उपासना आदि आवश्यक हैं; किन्तु जहाँ भक्ति हो वहाँ श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, दया, करुणा, उदारता, त्याग सहयोग, सहानुभूति, क्षमा आदि दैवी गुण भी अवश्य होने चाहिए। कर्म चाहे जैसे करो, ईश्वर सब क्षमा करेगा- इस मान्यता ने व्यक्ति और समाज दोनों का बड़ा अहित किया है। ईश्वर को मानने का दावा करने वाले दैवी गुणों की परवाह न करके इस भ्रम में पड़ गए हैं कि गुणों का विकास चाहे हो या न हो ईश्वर भक्ति से हमारा सब कुछ ठीक हो जाएगा। इस संकीर्ण दृष्टिकोण ने ब्रह्म- विद्या के सच्चे स्वरूप की आस्थाओं को भी नष्ट कर दिया है और बुद्धि प्रधान लोग उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं।
👉 मनुष्य जीवन बड़े सौभाग्य की वस्तु है, उससे भी बड़ा सौभाग्य ईश्वर में विश्वास होना है। कदाचित् लोगों का मन जप-तप और उपासना में लग जाए तो उन्हें अपने ऊपर परमात्मा की कृपा समझनी चाहिए, पर साथ ही अपने दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों के निवारण के लिये भी प्रयत्नशील होना आवश्यक है। अपने आसपास सभी प्रकार से ऐसा वातावरण रखना चाहिए जिससे गुणों को विकसित करने वाली सब चीजें हों। इसमें यदि किसी प्रकार की सांसारिक हानि हो तो उसे भी ईश्वर का आदेश मानकर पूरा करना चाहिए। सद्‌गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी त्याग कभी भी व्यर्थ नहीं जाता।
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