प्रसन्न रहना अथवा उद्विग्न हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है

🥀 ०८ नवंबर २०२४ शुक्रवार 🥀
//कार्तिक शुक्लपक्ष सप्तमी २०८१ //
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖प्रसन्न रहना अथवा उद्विग्न➖
❗हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है❗
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👉 “मानसिक उद्विग्नता” भी मनुष्य जीवन की बहुत बड़ी समस्या है। शांत, संतुष्ट, संतुलित और प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति बिरले ही दिखाई देते हैं। अधिकांश व्यक्तियों के माथे पर त्यौरियाँ चढ़ी होती हैं, आँखों में बुझापन, चेहरे पर अवसाद, वाणी में निराशा, मस्तिष्क में अस्थिरता और हृदय में अशांति के बादल घटाटोप छाये रहते हैं। निराशा, क्षोभ, असंतोष तथा क्लांति की छाया मन-मस्तिष्क में अंधकार फैलाए रहती है, और उस उल्लास का दर्शन कहीं भी नहीं होता, जो परमात्मा के ज्येष्ठपुत्र और सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी के नाते दिखाई देना चाहिए। मानसिक अशांति के लिए दूसरों के व्यवहार और परिस्थितियों को भी सर्वथा निर्दोष तो नहीं कहा जा सकता, पर यह स्वीकार करना ही होगा कि इसमें बहुत बड़ा कारण अपने “चिंतन तंत्र की दुर्बलता” ही रहती है। हम अपनी ही इच्छा की पूर्ति चाहते हैं, हर किसी को अपने ही शासन में चलाना चाहते हैं और हर परिस्थिति को अपनी मर्जी के अनुरूप चलने की अपेक्षा करते हैं। यह भूल जाते हैं कि यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है, इसमें व्यक्तियों का विकास अपने क्रम से हो रहा है और परिस्थितियाँ अपने प्रवाह से बह रही हैं। हमें उनके साथ तालमेल बिठाने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिए।
👉 कहा जा सकता है कि हम प्रसन्न और प्रफुल्लित रहने के लिए तो बहुत प्रयत्न करते हैं। दुःख और उदासी को कौन पसंद करता है ? और जान-बूझकर कौन चिंतित होना चाहेगा ? लेकिन परिस्थितियाँ ही ऐसी बन जाती हैं कि हमें चिंता और व्यथा होने लगती है। दूसरे लोग हमें खुश देखना पसंद करते नहीं, इसलिए वे हमारे सामने तरह-तरह की समस्याएँ खड़ी कर देते हैं। बात ठीक भी लगती है और मनुष्य को परिस्थितियों तथा दूसरों के व्यवहार से एक सीमा तक प्रभावित भी होना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ा कारण हमारी चिंतन शैली का त्रुटिपूर्ण होना ही है। इन तथ्यों को समझने के लिये कुछ उदाहरण लेना उचित रहेगा। पहले परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होने वाले असंतोष को ही लें। अपनी तुलना यदि अपने से अच्छी स्थिति वालों के साथ की जाये, तो स्थिति गरीबों जैसी प्रतीत होगी ही और चित्त भी दुःखी बना रहेगा।
👉 यदि अपने से निम्न स्थिति वाले से तुलना की जाये, तो अपनी स्थिति दूसरे कितने ही व्यक्तियों से अच्छी दिखाई देगी। वस्तुतः गरीबी और अमीरी सापेक्ष शब्द हैं। अधिक संपन्न व्यक्ति की तुलना में प्रत्येक व्यक्ति गरीब ठहरेगा और अधिक गरीब की तुलना में प्रत्येक व्यक्ति अपने को संपन्न अनुभव करेगा। यदि अपने दृष्टिकोण को इस सिद्धांत के अनुसार ढाल दिया जाये, तो परिस्थितियों के कारण होने वाले असंतोष और घुटन से बचा जा सकता है।
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