🥀 ०२ दिसंबर २०२४ सोमवार 🥀
// मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष प्रतिपदा २०८१//
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‼ऋषि चिंतन‼
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संकीर्णता के दायरे से बाहर निकलें | Step out of the boundaries of narrow-mindedness
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👉 मानव मानव के बीच संघर्ष लड़ाई का कारण गरीबी, अभाव आदि नहीं, वरन् “तेरे मेरे” का प्रश्न है। अपने लाभ, अपनी समृद्धि, अपने की सार-संभाल सभी को प्रिय लगती है, किंतु दूसरे के साथ वह भाव नहीं। उसकी हानि, अपमान, मृत्यु तक में भी कोई दिलचस्पी नहीं। उल्टा दूसरे से अपना जितना लाभ बन सके इसके लिए सभी को प्रयत्नशील देखा जाता है।
👉 इस व्यापक समस्या का भी एक समाधान है वह यह है कि अपने हृदय को “मेरे-तेरे” के संकीर्ण घेरे से निकालकर “समग्र” के साथ जोड़ा जाए। इसके व्यावहारिक मार्ग का प्रथम सूत्र है, “सह अस्तित्व” का मंत्र। स्वयं जिएँ और दूसरों को जीने दें। अपनी-अपनी थाली में ही सब बैठकर खाएँ। इसके बाद ही दूसरा मंत्र है-“दूसरें के जीने के लिए मुझे सहयोग करना होगा।” जिसकी पराकाष्ठा अपने आपको मिटा देने तक रहती है। दूसरों के जीने के लिए अपने आपको मिटाने की भावना एक दूसरे के दिल और दिमाग को जोड़ती है, एकाकार करती है यही व्यक्ति से लेकर विश्व समस्या का मूल समाधान है।
👉 हम भी अपने हृदय को दूसरों के लिए इसी तरह संवेदनशील बनाकर अपनी और विश्व की समस्याओं के समाधान में योग दे सकते हैं। जब परिवार में हम अपने लिए अच्छी माँग न रखकर दूसरों का ध्यान रखेंगे तो क्यों नहीं हमारा परिवार स्वर्गीय बनेगा ? इसी तरह पड़ोस, देश, समाज, जाति की यही आवश्यकता है जिसे अनुभव किए बिना मानव और विश्व की समस्या का समाधान न हो सकेगा।
👉 हृदय की संवेदना का विस्तार ही मनुष्य को भगवान के समकक्ष पहुँचाता है। श्री रामकृष्ण परमहंस की अत्युच्चकोटि की संवेदनशीलता ने उन्हें कालीमय और भगवान बना दिया। सामान्यतः लोगों में यह संवेदना बीज अधखिला, अधफला ही रहता है। अपनों के अपनत्व के दायरे में सीमित किए हुए लोग साधारण मनुष्य ही बनकर रह जाते हैं। करूणानिधान भगवान ने तो हमें अपने समकक्ष बन सकने के सभी साधन और शक्ति स्रोत दिए हैं, अब हम क्या बनते हैं – शैतान, इंसान या भगवान, यह हमारी आकांक्षा, संकल्प एवं प्रयत्न पुरुषार्थ की दिशा तथा स्वरूप पर निर्भर करता है।
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