ईश्वर न्यायकारी है

🥀 २४ सितंबर २०२३ रविवार 🥀
!! भाद्रप्रद शुक्लपक्ष दशमी २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖☝️ईश्वर न्यायकारी है☝️➖
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👉 ईश्वर का दंड एवं उपहार दोनों ही असाधारण है। इसलिए आस्तिक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दंड से बचा जाए और उपहार प्राप्त किया जाए । यह प्रयोजन छुट पुट पूजा अर्चना, जप ध्यान से पूरा नहीं हो सकता । भावनाओं और क्रियाओं को उत्कृष्टता के ढांचे में ढालने से ही यह प्रयोजन पूरा होता है। न्यायनिष्ठ जज की तरह ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता | स्तवन अर्चन करके उसे उसके नियम विधान से विचलित नहीं किया जा सकता है। अपना पूजन स्मरण या गुणगान करने वाले के साथ यदि वह पक्षपात करने लगे तो उसकी न्याय व्यवस्था का कोई मूल्य न रहेगा तो फिर सृष्टि की सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाएगी। सबको अनुशासन में रखने वाला परमेश्वर स्वयं भी नियम व्यवस्था में बंधा है। यदि वह उच्छृंखलता और अव्यवस्था बरतेगा तो फिर उसकी सृष्टि में पूरी तरह अंधेरखाता फैल जाएगा फिर कोई उसे न तो न्यायकारी कहेगा और न समदर्शी । तब उसे खुशामदी या रिश्वतखोर नाम से पुकारा जाने लगेगा। जो चापलूसी की स्तुति कर दे उससे प्रसन्न, जो पुरुष नेवैद्य भेंट करे इसी जाल जंजाल में उसे फंसाने का प्रयत्न करेगा, तब कठोर कर्म की, जीवन साधना को संयम सदाचार की और तप परमार्थ की कष्टसाध्य प्रक्रिया को अपनाना भला कोई क्यों पसंद करेगा ?
👉 हमें आस्तिकता एवं उपासना का वास्तविक उद्देश्य समझना चाहिए । भगवान को हम सर्वव्यापक एवं न्यायकारी समझकर गुप्त या प्रकट रूप से अनीति अपनाने का कभी भी कहीं भी साहस न करें । ईश्वर के दंड से डरें । वह भक्त वत्सल ही नहीं भयानक रुद्र भी है। उसका रौद्र रुप ईश्वरीय दंड से दंडित असंख्यों रुग्ण, अशक्त, मूक, वधिर, अन्ध, अपंग कारावास एवं अस्पतालों में पड़े हुए कष्टों से कराहते हुए लोगों की दयनीय दशा को देखकर सहज ही समझा जा सकता है । यह स्वरूप भुला नहीं देना चाहिए। केवल वंशी बजाने वाले और रास रचाने वाले ईश्वर का ही ध्यान न रखें, उसका त्रिशूलधारी भी एक रूप है जो असुरता में निमग्र दुरात्माओं का नृशंस दमन मर्दन भी करता है। यह भी हमारी चेतना पर चित्रित रहना चाहिए । जहाँ वह भक्तों को प्रेमोपहार प्रदान करता है, वहाँ वह अभक्तों का, अनीति पथ के अनुगामियों का बुरी तरह उच्छेदन भी करता है। उसके दंड में जीव को ऐसी चीत्कार करनी पड़ती है कि एक क्षण के लिए उसे कड़ा आपरेशन करने वाले डाक्टर की तरह नृशंस भी कहना पड़ता है । न्यायनिष्ठ जज को जिस प्रकार अपने सगे संबंधियों प्रशंसकों, मित्रों तक को कठोर दंड देना पड़ता है, फांसी एवं कोड़े लगाने की सजा देने को विवश होना पड़ता है, वैसें ही ईश्वर को भी अपने भक्त अभक्त का प्रशंसक, निन्दक का भेद किए बिना उसके शुभ अशुभ कर्मों का दंड पुरुस्कार देना होता है।
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