🥀 २५ नवंबर २०२३ शनिवार 🥀
!! कार्तिक शुक्लपक्ष त्रयोदशी २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖स्नेह और आत्मीयता ही➖
➖❗परिवार का❗➖
➖मुख्य आधार है➖
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👉 कुटुंब एक प्रकार से मनुष्य का सामाजिक शरीर ही है। जैसे शरीर के एक भाग को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए शरीर के दूसरे भाग में कोई कमी नहीं रहने देते और सारे अवयव एक-दूसरे की उन्नति एवं परिपुष्टि से लाभ उठाते हैं, वही आधार कुटुंब का भी होता है। आधार “अपनेपन” को विस्तृत करता है। माता अपना जीवन रस निचोड़कर बच्चे का शरीर बनाती है और उसे पालती-पोसती है। पिता अपनी कमाई को स्वयं कष्ट में रहकर भी बच्चों के लिए खर्च करता और जमा पूँजी को उत्तराधिकार के रूप में उन्हीं को सौंप जाता है। भाई-भाई एक ही हाथ की उंगलियों की तरह मिल-जुलकर काम करते हैं। पति-पत्नी आपस में इतने घुल जाते हैं कि एक प्राण दो शरीर का उदाहरण बनते हैं। संतान अपने माता-पिता को ब्रह्मा विष्णु के समान पूज्य मानती हैं। बहिन-भाई का संबंध तो अलौकिक ही रहता है। सास-बहू में माता-पुत्री जैसा, देवरानी-जिठानी में बहिन-बहिन जैसा प्रेमभाव रहता है। इसी आधार पर कुटुंबी लोग मिलकर एक सम्मिलित सामाजिक शरीर जैसे बन जाते हैं और उसकी इकट्ठी शक्ति से आर्थिक एवं सामाजिक लाभ अत्यधिक होता है। इस संगठन की छाया में परिवार के बच्चे, बूढ़े, विधवाएँ, अशक्त उपार्जन न कर सकने वाले, अयोग्य व्यक्ति भी बड़े आनंदपूर्वक अपना समय काट लेते हैं। एक-दूसरे के दुःख-दर्द को बटाकर बड़ी से बड़ी मुसीबत को हलकी कर लेते हैं।
👉 निर्जीव वस्तुएँ एक और एक मिलकर दो होती हैं पर सजीव मनुष्य एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। इस सच्चाई का प्रत्यक्ष अनुभव वहाँ किया जा सकता है, जहाँ परिवार के सभी लोग परस्पर सच्चा प्रेम करते हैं। एक-दूसरे के लिए आदर, उदारता, त्याग एवं आत्मीयता की भावनाएँ निरंतर प्रदान करते रहते हैं। रामायण का सबसे बड़ा शिक्षण पारिवारिक आधार की आध्यात्मिकता एवं कर्तव्यशीलता का शिक्षण ही है। एक से कोई भूल होती है तो दूसरे स्वयं कष्ट उठाकर अपनी उदारता से उसका समाधान करते हैं। दशरथ का कैकेयी को अनुचित वरदान देने के लिए भी वचन-बद्ध होना, कैकेयी का अनुचित वरदान माँगना, राम का धोबी के कथन से प्रभावित होकर सीता को वनवास देना यह तीनों मानवीय दुर्बलताएँ हैं पर इसका समाधान रामायण में प्रतिहिंसा और विद्वेष के रूप में नहीं वरन् दूसरे पक्ष के आदर्श त्याग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दशरथ कैकेयी को संतुष्ट करने के लिए स्वयं पुत्र शोक में मरना स्वीकार करते हैं, राम भी विमाता और पिता को प्रसन्न करने के लिए अनुचित आज्ञा होते हुए भी खुशी-खुशी वन चले जाते हैं। भाई की सुरक्षा के लिए और पति की सेवा के लिए सीता वनवास का कष्टसाध्य जीवन स्वीकार करती हैं। भरत भाई का अधिकार लेना किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं करते और राम की खड़ाऊँ को सिंहासन पर बिठाकर स्वयं भी एक तपस्वी की तरह जीवन बिताते हुए राज-काज चलाते हैं। सीता को जब परित्याग किया जाता है तो वे अपने पति के प्रति दुर्भावना नहीं लातीं वरन् उनके प्रयास की रक्षा के लिए वाल्मीकि के आश्रम में बिछोह और अभाव का जीवन बिताना स्वीकार करती हैं। कौशिल्या न तो अपने बेटे को वन जाने से रोकती है और न उर्मिला अपने पति को। परिवार का सच्चा आधार यही प्रेम यही आत्म त्याग है। प्रेम से उदारता, सेवा और आत्म त्याग की व्यावहारिक शिक्षा मिले इसलिए कुटुंब की पद्धति मानव जाति में प्रचलित हुई है। यह धारणा न रहे तो कीड़े-मकोड़ों का-सा अपना भी पारिवारिक जीवन रहेगा।
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