Don’t Chase After “Materiality” | भौतिकता के पीछे मत भागिये

🥀 २८ नवंबर २०२३ मंगलवार🥀
!!मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष प्रतिपदा २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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“भौतिकता” के पीछे मत भागिये
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👉 “भौतिक” और “आध्यात्मिक” विचारधारा में एक मौलिक मतभेद है। “आध्यात्मिक” आदर्श मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर मानते हैं और मनुष्य से दिव्य जीवन के दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने की अपेक्षा करते हैं। दिव्यजीवन का अर्थ है “मानवीय सद्‌गुणों से समृद्ध, शुद्ध जीवन।” इसमें आत्मकल्याण के निजी उद्देश्य के साथ विश्वकल्याण की आदर्श भावना सन्निहित है। अर्थात् मनुष्यों के बल, बुद्धि और पराक्रम को श्रेष्ठ साधन मानते हुए भी प्राणिमात्र के प्रति आत्मभावना ही हमारी विशेषता है। इसमें किसी के उत्पीड़न का कहीं भाव तक नहीं आता। विश्वसुख और विश्वशांति का इससे बढ़कर दूसरा आदर्श हो नहीं सकता। सरल शब्दों में हिल-मिलकर सांसारिक सुखों का उपभोग और आत्म कल्याण की दृढतर भावना ही पूर्वी संस्कृति का स्वरूप है। इसी से मानवीय हितों की रक्षा संभव हो सकती है।
👉 किंतु “भौतिकवादी” मान्यता का रूप ही कुछ दूसरा है। उसकी संपूर्ण परंपरायें, रीति और रिवाज बाह्य जगत् के सुखों को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं अर्थात् सुख चाहे वह किसी से छीनकर प्राप्त किये जाएँ अथवा मनुष्येतर प्राणियों की हिंसा द्वारा प्राप्त हो. उनको पा लेना दुष्कृत्य नहीं बुद्धिमत्ता मानी जाती है। इससे वहाँ के आचार-विचार और जीवनयापन के विभिन्न व्यवसायों में भी वैसी ही ‘भयानकता छाई हुई है। तलाक के बड़े-बड़े आँकड़े छापना ही मानो उनकी बुद्धि का और सभ्यता का प्रतीक है। माता-पिता के प्रति सद्‌भावना की कमी, सामाजिक-जीवन में स्वार्थपरता, बेईमानी, चोरी, झूठ, छल, कपट, आडंबर यही सब विशेषतायें हमने भी उनसे सीख ली। छोटी-छोटी बातों में कानून की शरण, धन का अपव्यय और उसे प्राप्त करने के लिए अनैतिक आचरण करना, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए पशु-पक्षियों तक का हाड़ मांस और खून चूस लेने में ही जो अपनी विशेषता समझता हो, उसे भी कोई बुद्धिमान् व्यक्ति भला कहेगा ? ऐसी घृणित परंपरायें जिस समाज तथा राष्ट्र में फैल रही हों उन्हें क्या तो सुख प्राप्त होंगे और क्या उनका आत्मकल्याण होगा ? दर-दर की ठोकरें खाना, क्षुब्धता, अशांति और उद्विग्नता के दुष्परिणाम ही उन्हें मिल सकते थे, वही मिले भी। ऐसी अवस्था में धर्म और अध्यात्मवाद को दोष लगाना उचित नहीं है। दुःख के परिणाम हमने स्वयं पैदा किये हैं। इसका दोषारोपण किसी दूसरे पर करने का हमारा कोई अधिकार नहीं है।
👉 भौतिक सभ्यता का अनुकरण आज जिस तेजी से हो रहा है-लोगों का नैतिक पतन भी उसी गति से हो रहा है। “स्वामी विवेकानंद” ने वर्षों पहले इस बात की चेतावनी देकर हमें सतर्क किया था। उन्होंने कहा था- “ध्यान रखो, यदि तुम आध्यात्मिकता का त्याग कर दोगे और इसे एक ओर रखकर पश्चिम की जड़वादपूर्ण सभ्यता के पीछे भागने लगोगे तो तुम्हारा अब तक का संपूर्ण गौरव समाप्त हो जायेगा, तुम्हारी जाति मरी समझी जायेगी और राष्ट्र की सुदृढ़ नींव जिस पर इसका निर्माण हुआ है, पतन के गहरे गर्त में चली जायेगी- इसका प्रतिफल सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ न होगा।”
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