🥀 २९ नवंबर २०२३ बुधवार🥀
!!मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष द्वितीया २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖भौतिकवादी दृष्टिकोण➖
हमारे लिए नरक सृजन करेगा
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👉 पूर्ण “भौतिकवादी” होने का सबसे बड़ा दंड यह है कि ईश्वर के प्रति मनुष्य की आस्था शिथिल हो जाती है। “भौतिकवादी” और “ईश्वरवादी” में परस्पर विरोध है। निश्चित है कि जो भौतिकवादी होगा, उसकी दृष्टि संसार तक ही सीमित रहेगी और जो ईश्वरवादी है उसकी दृष्टि संसार तक ही सीमित न रहकर लोक-परलोक, पाप-पुण्य, आत्मा और परमात्मा तक जायेगी ही।
👉 “खाओ, पीयो और मौज करो” का सिद्धांत मानने और उस पर आचरण करने वालों को इतना अवकाश ही कब रहता है कि वे आत्मा-परमात्मा के विषय में कुछ सोच सकें। उन्हें तो खाने-पीने और मौज करने के साधन-सामग्री जुटाने में ही अपना सारा समय लगाना होगा। उनकी बुद्धि, उनकी विद्या और उनका सारा परिश्रम- पुरुषार्थ उन्हीं उपकरणों के संचय में यापन होता रहेगा; क्योंकि भौतिक ही सही, कोई भी उपलब्धि शक्तियों को केंद्रित कर क्रियाशील बनाये बिना नहीं हो सकती। “खाओ, पियो और मौज करो” की वृत्ति स्वाभाविक रूप से तृप्त ही नहीं होती है। भौतिकवादी कितना ही क्यों न कमाये, कितनी ही संपत्ति क्यों न संचित कर ले और कितने ही साधन क्यों न इकट्ठे कर ले, उसे संतोष अथवा तृप्ति हो ही नहीं सकती। इसके दो कारण हैं- एक तो यह वृत्ति स्वयं ही असंतोषिनी होती है, दूसरे भौतिक भोगों में तृप्ति कहाँ ? आज के साधन कल पुराने हो जाते हैं। नये साधनों की लालसा जाग पड़ती है और नये भी जल्दी ही पुराने हो जाते हैं। इस प्रकार यह चक्र निरंतर रूप से रात-दिन चलता रहता है। ऐसी दशा में मनुष्य का पूरा जीवन खाओ, पीयो और मौज करो के साधन जुटाने में ही जुटा हुआ समाप्त हो जाता है। भौतिकता की अतिशयता से ग्रसित मनुष्य के पास इतना अवकाश ही नहीं रहता कि वह उस आदि सत्ता और अनादि कारण परमात्मा के विषय में सोच सके।
👉 बहुत मात्रा में भौतिक साधनों का ही संचय करने के लिए मनुष्य जल्दी ही ईमानदारी, नीति, न्याय तथा धर्म की सीमा छोड कर अनुचित एवं असत्य की रेखा में चला जाता है और तब त्वरित गति से संचय में बढ़ता हुआ आत्मा-परमात्मा से इतनी दूर चला जाता है, जहाँ पर न तो उसकी आवाज सुनाई देती है और न झलक ही दिखाई देती है। साथ ही ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट, असत्य एवं अनीति के लौह आवरण उस ज्योति का मार्ग स्वयं ही अवरुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार भौतिकता की भयानक लिप्साएँ ईश्वरीय निष्ठा को इस सीमा तक नष्ट कर देती हैं कि मनुष्य अनजाने में ही पूरा नास्तिक बन जाता है।
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