If you want to be healthy then become spiritualist | स्वस्थ रहना है तो अध्यात्मवादी बनिए

🥀 ०४ दिसंबर २०२३ सोमवार🥀
!! मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष सप्तमी २०८० !!
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‼ऋषि चिंतन‼
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स्वस्थ रहना है तो अध्यात्मवादी बनिए
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👉 “अध्यात्मवाद” का व्यावहारिक स्वरूप है-संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य । शारीरिक समस्या तब पैदा होती है। जब शरीर को भोग साधन समझकर बरता जाता है। आहार-विहार और रहन-सहन को विलासपरक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है । सर्दी, जुकाम, सिर दर्द, रक्तचाप, हृदय शूल, अजीर्ण और यहाँ तक कि कभी कभी असाध्य राज-रोगों का शिकार बनना पड़ता है। ऐसी दशा में एक शारीरिक समस्या ही मनुष्य की सारी जिंदगी अपने निमित्त लगा लेती है, तब वह कैसे परमात्मा का सामीप्य प्राप्त करने के लिए साधना कर सकता है और कब आत्मा का चिंतन कर सकता है ? रोगी रहने वाला मनुष्य किसी लौकिक और पारलौकिक प्रगति के लिए एक प्रकार से असमर्थ ही बन जाता है।
👉 यह शारीरिक समस्या बड़ी आसानी से हल हो सकती है, यदि इसके विषय में दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाए । पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है । शरीर को भगवान का मंदिर समझकर उसे सर्वथा पवित्र और स्वच्छ रखा जाए, आत्मसंयम और नियमितता द्वारा शरीर धर्म का दृढतापूर्वक पालन करते रहा जाए तो शारीरिक संकट की संभावना ही न रहे। वह सदा स्वस्थ और समर्थ बना रहे । अपने अनियम और असंयम द्वारा भगवान् के इस पवित्र मंदिर को ध्वंस करने का अपराध भयानक पाप का कारण बनता है। शरीर भगवान का मंदिर है।
👉 उपरोक्त बात न तो कभी भूलनी चाहिए और न तत् विरोधी आचरण ही करना चाहिये। शरीर में आत्मा का निवास रहता है और यह आत्मा, परमात्मा का ही अंश होता है, इसलिए शरीर भगवान् का मंदिर ही है। जो व्यक्ति भगवान् के इस पवित्र मंदिर का समुचित संरक्षण एवं सेवा करता रहता है, उसके सामने शारीरिक समस्याएँ खड़ी नहीं होती। यदि संयोगवश खड़ी भी हो जाती है तो उनका शीघ्र ही समाधान हो जाता है। शरीर के विषय में आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखने का सुफल आरोग्य होता है। जिसने नियमन एवं आत्म-संयम द्वारा आरोग्य की प्राप्ति कर ली, उसने मानो आत्मिक लक्ष्य की और एक मंजिल पार कर ली।
👉 “स्वास्थ्य” और “आरोग्य” का संबंध पौष्टिक पदार्थों से जोड़ना भूल है। अधिक या अधिक पुष्टकर भोजन करने से न तो स्वास्थ्य बनता है और न आरोग्य की उपलब्धि होती है। इसका आधार है- “आत्म-संयम” एवं “नियमितता”। इसके प्रमाण में हमारे सामने ऋषियों-मुनियों का अनुकरणीय उदाहरण मौजूद है। खाद्य के नाम पर वे कतिपय फल और कंद-मूल आदि का ही प्रयोग किया करते थे। तथापि सदा स्वस्थ और निरोग – दीर्घ जीवी बने रहते थे।
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