🥀 २९ दिसंबर २०२३ शुक्रवार🥀
🍁पौष कृष्णपक्ष तृतीया २०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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वर्तमान संकट का कारण मनुष्य स्वयं
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👉 “युग-परिवर्तन” की घड़ी सन्निकट है। व्यक्ति में “दुष्टता” और समाज में “भ्रष्टता” जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए, सर्वनाश की विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही विषम असंतुलन को समय-समय पर सुधारने सँभालने के लिए स्रष्टा की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है। संकटों की घड़ी आने पर उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली ईश्वरीय सत्ता आज की संकटापन्न विषम वेला में उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अपनी अवतरण प्रक्रिया को फिर संपन्न करने वाली है।
👉 यह आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई ? प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उत्तर एक ही है-इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध और ढाल सकता है। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर है कि धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख-शांति बनाए रहे वरन ब्रह्मांड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उद्दंडता बरतता है-चिंतन को “भ्रष्ट” और आचरण को “दुष्ट” बनाता है तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का संतुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानो अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है। किंतु अदृश्य और अप्रत्यक्ष को जो जानते हैं उनका स्पष्ट मत है कि पानी में पत्थर फेंकने और छींटे उठाने की जिम्मेदारी उन लड़कों की है जो तालाब के एक कोने पर बैठे शरारत करते रहते हैं। तालाब अकारण उछलने लगे और अपने जलचर परिवार के लिए संकट करे ऐसी बात है नहीं, प्रतीत भले ही होती हो।
👉 इन दिनों उभरने वाले प्रकृति-प्रकोपों का सिलसिला अगले दिनों घटेगा नहीं बढ़ेगा। इस आशंका से सभी चिंतित हैं। भय अकारण है या सकारण इसका अन्वेषण करने पर कितने ही तथ्य सामने आते हैं और अशुभ संभावना की पुष्टि करते हैं। आणविक विस्फोटों के कारण बढ़ता हुआ विकिरण, विषाक्त ईंधन से उत्पन्न वायु प्रदूषण, पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे प्राय: ४००० उपग्रहों के कारण सुरक्षा परतों में विक्षोभ, ऊर्जा के बढ़ते उपयोग से गरमी का बढ़ना और उसके कारण हिम प्रदेशों का असंतुलित रीति से पिघलना, भूगर्भ से खनिज संपदा निचोड़ लेने पर उसका खोखला एवं ठंडा होते जाना आदि कितने ही कारण हैं जो धरती की भीतरी सतहों और बाहरी वातावरण में विक्षोभ उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। इन्हें मनुष्य की प्रकृति के साथ उद्धत छेड़खानी कह सकते हैं। छेड़ने पर तो चींटी भी काटती है फिर नियति क्यों चूकने लगी ।