Accumulated Karmas And Their Essence | संचित कर्म और उनका मर्म

🥀 ०९ जनवरी २०२४ मंगलवार🥀
🍁पौष कृष्णपक्ष त्रयोदशी २०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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❗संचित कर्म और उनका मर्म❗
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👉 यदि हम अपने दिन भर के कामों का निरीक्षण करें तो उन्हें तीन श्रेणियों में बाँट देना पड़ेगा । कुछ तो ऐसे होते हैं जो बिना जानकारी में होते हैं जैसे बुरे लोगों के मुहल्ले में या सत्संग में रहने से उनका प्रभाव किसी न किसी अंश में गुप्त रूप से अपने ऊपर पड़ जाता है। यह प्रभाव पड़ा तो परन्तु हमने उसे इच्छा पूर्वक स्वीकार नहीं किया इसलिए वह हल्का, निर्बल एवं कम प्रभाव वाला होकर हमारी भीतरी चेतना के एक कोने में पड़ा रहा । ऐसे हीन वीर्य संस्कार बनाने वाले “संचित कर्म” कहे जाते हैं। जो कार्य विवशता में दबाये जाने पर करने पड़ें, पर मन की आन्तरिक इच्छा यही रही कि यदि विवशता न होती तो इस काम को मैं कदापि न करता । इस तरह लाचारी से जो काम करने पड़ें और मन जिनके विरुद्ध विद्रोह करता रहे एवं उस कार्य को स्वभाव बनाकर अपना नहीं लिया हो तो उस कार्य का संस्कार भी हल्का, अल्प वीर्य और कम प्रभाव वाला होता है। ऐसे काम भी “संचित कर्म” की ही श्रेणी में आते हैं। इन संचित कर्मों के संस्कार बहुत कमजोर एवं हलके होते हैं इसलिए वे मनोभूमि के किसी अज्ञात कोने में सिमटे हुए हजारों वर्षों तक पड़े रहते हैं। यदि उन्हें प्रकट होने का कोई अच्छा अवसर न मिले तो यों ही दबे-दबाये पड़े रहते हैं। किन्तु यदि उसी प्रकार के बुरे कर्म कभी जानबूझकर स्वेच्छा से, विशेष मनोयोग के साथ किये गये तो वे सड़े-गले संचित संस्कार भी कुलबुलाने लगते हैं। जिस प्रकार घुना हुआ बीज भी अच्छी भूमि और अच्छी वर्षा पाकर उग आता है वैसे ही संचित संस्कार भी अपनी जाति के बलवान कर्मों की सहायता पाकर उग आते है। परन्तु यदि उन संचित संस्कारों को लगातार विपरीत स्वभाव के बलवान कर्म संस्कारों के साथ रहना पड़े तो वे नष्ट भी हो जाते हैं। गर्म जगह में रखा हुआ एक घड़ा पानी गर्मी के प्रभाव से आखिर एक महीने में सूख ही जाता है, इसी प्रकार उत्तम कमों के संस्कार जमा हो रहे हों तो वे बेचारे बुरे संस्कार उनकी गर्मी में जल कर नष्ट हो जाते हैं । धर्म ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि तीर्थयात्रा आदि अमुक शुभ धर्म कार्य करने से पूर्व जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। असल में वह संकेत इन अल्पवीर्य वाले “संचित संस्कारों” के सम्बन्ध में ही है। भले और बुरे दोनों ही प्रकार के संचित कर्म संस्कार अनुकूल परिस्थिति पाकर फलदायक होते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में नष्ट भी हो जाते हैं।
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