🥀 २६ फरवरी २०२४ सोमवार🥀
🍁 फाल्गुनकृष्णपक्षद्वितीया२०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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आंतरिक सुधार ही महत्वपूर्ण है
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👉 “महानता” की ओर बढ़ने और “निम्नता” की ओर गिरने की एक प्रक्रिया है, जिसको अपनाकर लोग ऊँचे उठते हैं और नीचे गिरते हैं। वह प्रक्रिया क्या है – “आंतरिक देवासुर संग्राम” । मनुष्य के हृदय में दैवी और आसुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं। जो व्यक्ति अपने प्रयत्न एवं पुरुषार्थ द्वारा आसुरी वृत्तियों का शमन कर दैवी वृत्तियों का विकास कर लेता है, उन्हें पुष्ट और प्रबल बना लेता है, वह महानता की ओर उठ जाता है और जो व्यक्ति प्रमादवश ऐसा नहीं करते उनकी आसुरी प्रवृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं। इस प्रकार का आसुरी प्रभावित व्यक्ति पतन के गर्त में गिर जाता है।
👉 देवत्व का उत्थान ही उच्चता अथवा महानता है और असुरत्व की प्रबलता ही पतन है। एक संत अथवा जनसेवक जिसके पास न धन है न पद है, और न कोई सत्ता लेकिन अपनी सेवाओं, दया, करुणा, प्रेम, सहानुभूति आदि गुणों के कारण महान है। जबकि बड़ी- बड़ी विजय करने वाला, साम्राज्य स्थापित करने वाला, शासनतंत्र संचालित करने वाला उच्च पद पर प्रतिष्ठित, संपत्ति, सत्ता और शक्ति संपन्न होते हुए भी अपने अत्याचार, अनीति, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न की वृत्ति के कारण पतित है, निम्नकोटि का है। महानता अथवा निम्नता का भाव स्थिति में नहीं बल्कि आंतरिक गुण-अवगुणों में रहता है।
👉 “महानता” का शुभारंभ “अंतर” से होता है, “बाह्य” से नहीं। “अंतर” को महान बनाए बिना वास्तविक रूप में कोई महान नहीं बन सकता। यदि कोई अधो अंतर वाला संयोग, चातुर्य अथवा परिस्थितियों द्वारा किसी उच्च पदवी और प्रतिष्ठा पर पहुँच भी जाता है तो बहुत दिन तक वह अपने उस ऐश्वर्य को सुरक्षित नहीं रख सकता। उसकी आंतरिक विकृतियां उसे निकृष्ट कार्य और विचार जाल में फंसाकर शीघ्र ही धूल में गिरा देती है।
👉 महानता का आधार “अंतर” है, “बाह्य” परिस्थितियां नहीं । महानता के वास्तव में ऐसे फल हैं, जो अंतर की डाली पर लगा करते हैं। यदि आंतरिक डाली मजबूत और उपयुक्त नहीं है तो निश्चय ही उस पर लग जाने वाले महानता के फल स्वयं तो नष्ट हो ही जाएंगे, व्यक्ति का अस्तित्व भी उसी प्रकार नष्ट कर देंगे जैसे फलों के भार से वृक्ष की कमजोर डाली फट पड़ती है और शीघ्र ईंधन बनकर स्वाहा हो जाती है।
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