🥀 १४ मार्च २०२४ गुरुवार🥀
🍁फाल्गुनशुक्लपक्षपंचमी२०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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“विज्ञान” को सब कुछ मानकर
➖”अध्यात्म” को नकारना➖
मानव जाति के लिए ठीक नहीं है
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👉 पिछले दिनों “बुद्धिवाद” एवं “विज्ञान” का जो विकास हुआ है, उसने भौतिक सुविधाओं को भले ही बढ़ाया हो, “आध्यात्मिक” आस्था को तो दुर्बल बनाया है। विज्ञान ने जब मनुष्य को एक पेड़-पौधा मात्र बनाकर रख दिया और उसके भीतर किसी आत्मा को मानने से इनकार कर दिया, ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत किया, इस सृष्टि को सब कुछ अणुओं की स्वाभाविक गतिविधि के आधार पर स्वसंचालित बताया तो स्वभावतः विज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर अति प्रामाणिक मानने वाली बुद्धिवादी नई पीढ़ी उसी मान्यता को शिरोधार्य क्यों न करेगी ? प्रत्यक्ष है कि विचारशील वर्ग अनास्थावान होता चला जा रहा है और यह एक भयानक परिस्थिति है, क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग के पीछे जनता के अन्य वर्गों को चलने के लिए विवश होना पड़ता है आज के थोड़े-से अनास्थावान बुद्धिजीवी कल-परसों अपनी मान्यताओं से समस्त जन-समाज को आच्छादित किए हुए होंगे।
👉 “आध्यात्मिक” मान्यताएँ सदाचार, सहयोग, सद्भाव, सेवा सद्भावना, पुण्य, संयम एवं त्याग, बलिदान जैसी सत्प्रवृत्तियों की रीढ़ हैं। आत्मकल्याण ईश्वरीय प्रसन्नता, पुण्य-परमार्थ, स्वर्ग-नरक, कर्मफल आदि मान्यताओं के आधार पर ही मनुष्य अपनी चिरसंचित पशुता पैशाचिकता पर नियंत्रण करने और लोक-कल्याण के लिए नितांत आवश्यक सत्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने में समर्थ होता है। यदि वह आधार ही नष्ट हो गया; यदि उन मान्यताओं को कपोल कल्पित मान लिया गया, तो फिर न किसी को संयमी बनने की आवश्यकता अनुभव होगी, न सदाचारी होने की, न पुण्य अभीष्ट होगा और न परमार्थ । न त्याग की बात कोई करेगा और न बलिदान की; फिर मनुष्य ‘खाओ- पीओ, मौज उड़ाओ’ के आदर्श को अपनाकर हर अनैतिक कार्य करने के लिए तैयार हो जाएगा, ताकि वह अधिक मौज – मजा उड़ाने का अधिक अवसर प्राप्त कर सके ।
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