महादानी राजा मोरध्वज
महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद पांडवों द्वारा श्री कृष्ण के कहने पर अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया गया। अश्वमेघ यज्ञ के बाद घोड़ा छोड़ा जाता है और वह घोड़ा जहां तक जाता है वहां तक उस राज्य के राजा की दासता स्वीकार कर ली जाती है। घोड़े की रक्षा के लिए धनुर्धर अर्जुन को नियुक्त किया गया था। कोई भी राज्य का राजा उस अश्व को रोकने की कोशिश नहीं करता था क्योंकि वीर धनुर्धर उसकी रक्षा कर रहे।
घोड़ा निरंतर आगे बढ़ता जा रहा था- कई राज्यों को पार करने के बाद वह घोड़ा- रतनपुर राज्य की सीमा तक जा पहुंचा। रतनपुर के राजा मोरध्वज बड़े ही धर्मात्मा और श्री नारायण के परम भक्त थे। राजा मोरध्वज का पुत्र ताम्रध्वज था। जिसने अल्प आयु में ही युद्ध कला में सर्व शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वीर ताम्रध्वज ने अश्वमेध का वह घोड़ा रोक लिया और घोड़े के रक्षक अर्जुन की प्रतीक्षा करने लगा। सेना सहित धनुर्धर अर्जुन वहां पहुंचे. और उस वीर बालक से कहा- “हे बालक” तुमने जिस घोड़े को रोका है वह चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है जिस की सुरक्षा के लिए मैं स्वयं खड़ा हूं। इस घोड़े को पकड़ने का साहस किसी भी राज्य के राजा ने नहीं किया। जिस राज्य में इस घोड़े ने अपने पैर रखे हैं उस राज्य के राजा ने युधिष्ठिर की दासता स्वीकार कर ली है।
मैं तुम्हारी भूल समझकर तुम्हे क्षमा करता हूं इसलिए तुम यह घोड़ा छोड़ दो।
इस बात पर ताम्रध्वज ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए कहा कि हे अर्जुन! सिर्फ आप ही कहोगे या मेरी भी सुनोगे! मैं रतनपुर का भावी सम्राट ताम्रध्वज हूं। मेरे पिता मोरध्वज और माता विद्याधरणी है। मैं क्षत्रिय पुत्र हूं और क्षत्रिय कभी किसी का दास नहीं होता। इस पर अर्जुन ने कहा कि नादान बालक तुम जानते नहीं हो तुम क्या कर रहे हो? तुम्हारा यह बाल हठ युद्ध करवा सकता है और युद्ध का परिणाम तुम नहीं जानते हो। इसलिए तुम यह घोड़ा छोड़ दो और अपने पिता को सूचित करो ताकि वह तुम्हें समझा सके। अर्जुन और ताम्रध्वज का भयंकर युद्ध हुआ जिसमें अर्जुन मूर्छित होकर गिर पड़े- तब श्री कृष्ण ने कहा- कि तुम से भी बड़े वीर इस संसार में हैं- यह तुमने देख लिया- अब अपने से बड़ा दानी और भक्त भी देखने की इच्छा है तो बताओ।
अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा कि मैं अवश्य ही उस भक्त के दर्शन करना चाहूंगा- जो मुझसे भी बड़ा आपका भक्त है।
तब भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ब्राह्मण का वेश धारण करके- तथा स्वयं यमराज एक सिंह के भेष में रतनपुर राज्य की ओर चल पड़े- जहां राजा मोरध्वज का राज दरबार लगा था। जैसे ही राजा मोरध्वज को इस बात की खबर लगी कि साधू उनके राज दरबार में आए हैं- तो तुरंत उन्होंने अपना सिंहासन छोड़- साधुओं को प्रणाम कर आशीर्वाद लिया।
ब्राह्मण रूपी श्री कृष्ण ने राजा मयूरध्वज से कहा: कि हमने तुम्हारे दान की बहुत प्रशंसा सुनी है। चारों और तुम्हारे यश की कीर्ति है कि कोई भी याचक तुम्हारे दरबार से खाली हाथ नहीं जाता है।
राजा मोरध्वज ने ब्राह्मण रूपी श्री कृष्ण से कहा: कि यह भगवान नारायण की ही मुझ पर कृपा है- कि आज तक मेरे दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटा है।
ब्राह्मण रूपी श्री कृष्ण ने कहा कि हम आपसे ऐसी कोई वस्तु नहीं मांगेंगे जो आपके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो।
श्री कृष्ण ने राजा मोरध्वज से कहा: कि हम तीन प्राणी बहुत लंबे समय से यात्रा कर रहे हैं। हम दोनों तो कंदमूल खाकर अपनी भूख शांत कर लेते थे- परंतु हमारे साथ यह सिंहराज भी हैं- जो सिर्फ मांसाहार करते हैं। और यह सिर्फ मनुष्य का मांस ही भक्षण करते हैं।
मोरध्वज ने श्री कृष्ण से कहा- कि मैं स्वयं सिंह के समक्ष प्रस्तुत हूँ- यदि वह मेरा भक्षण करेंगे तो मैं खुद को धन्य समझूंगा, श्री कृष्ण ने कहा: कि पृथ्वी पर- स्वयं को दान करने वालों की कमी नहीं है। यदि तेरे जैसा भोजन करते- तो हमें आपके पास आने की जरूरत नहीं होती।
महाराज मोरध्वज ने श्री कृष्ण से कहा: कि अब आप ही बताएं- कि मैं कैसे सिहंराज के भोजन की व्यवस्था कर सकता हूं।
ब्राह्मण बने श्री कृष्ण ने राजा से कहा: कि हमारे सिंह के भोजन के लिए आपको अपनी रानी सहित आरा लेकर अपने पुत्र ताम्रध्वज को चीरना होगा- जिससे सिंहराज भोजन कर सकें।
श्री कृष्ण की आवाज सुनकर सारा दरबार स्तंभित हो गया। स्वयं अर्जुन, श्री कृष्ण के इस तरह की बात से डर गए। एक क्षण के लिए राजा भी डगमगाए परंतु तुरंत समल गए।
राजा मोरध्वज ने कहा: कि हे महात्मा धन्य है मेरा पुत्र ताम्रध्वज! जिसे आपने सिंहराज के आहार के लिए चुना है। श्री कृष्ण ने राजा से कहा कि पुत्र को चीरते समय यदि माता पिता की आंखों में आंसू आए तो सिंहराज भोजन स्वीकार नहीं करेंगे। राजा मोरध्वज ने अपने पुत्र और पत्नी को भी राजी कर लिया।
अर्जुन,राजा के इस प्रकार समर्पण और वचनबद्ध बातों को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। इसके बाद राजा ने आरा उठाया- और अपने इकलौते पुत्र के सिर पर रख कर परम पिता परमात्मा का स्मरण करते हुए- अपने पुत्र को चीरना प्रारंभ कर दिया। अर्जुन चौक कर मूर्छित हो गए,आरे से निरंतर उनके शरीर के दो भाग किए जा रहे थे। इस तरह ताम्रध्वज का शरीर दो भागों में बंट गया। राजा मोरध्वज ने ब्राह्मण से कहा कि महात्मा आप इस सिंह से भोजन करने के लिए कहें।
सिंहराज ने आगे बढ़कर ताम्रध्वज का दायाँ भाग खा लिया,तभी ताम्रध्वज की माता की बायीं आंख से आंसू टपक पड़े।
श्री कृष्ण ने महारानी से पूछा- कि यह आंसू किस लिए, तब रानी ने कहा- कि महा पितृ भक्त ताम्रध्वज के दाहिने अंग को तो आपने स्वीकार कर लिया – परंतु वाम अंग को छोड़ दिया- इसी कारण मेरी बायीं ओर से आंसू निकल पड़े। इस दृश्य को देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। भक्ति का ऐसा प्रकाश अर्जुन ने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था।
इसके बाद ब्राह्मणों के लिए सात्विक भोजन की व्यवस्था की गई। श्री कृष्ण ने राजा से कहा- कि तुम्हारे पुत्र को बैकुंठ में स्थान मिलेगा। ईश्वर तुम्हारे दान भक्ति से अति प्रसन्न रहता है-और वह कभी अपने भक्तों का अहित नहीं करेंगे। ब्राह्मण रूपी श्री कृष्ण ने राजा से कहा कि अपनी दाहिनी तरफ देखें- आपके अलौकिक कार्य का फल आपको मिल चुका है! जैसे ही राजा ने अपनी दाहिनी तरफ देखा- ताम्रध्वज जीवित अवस्था में खड़ा था.अपने पुत्र को देख रानी ने उसे गले से लगा लिया।
राजा मोरध्वज ने ब्राह्मण से कहा: कि आप कौन हैं- और किस कारण आपने मेरी इतनी कठिन परीक्षा ली…..?
…भगवान श्री कृष्ण ने अपने विराट रूप के दर्शन राजा मोरध्वज को दिए और मोरध्वज श्री कृष्ण के चरणों में गिर गए. यह दृश्य देख अर्जुन उस महादानी राजा मोरध्वज के पैरों में गिर गए और इस तरह अर्जुन का अहंकार नष्ट हो गया।