🥀 २२ अप्रैल २०२४ सोमवार🥀
🍁चैत्र शुक्लपक्षचतुर्दशी २०८१🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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घृणा एक मारक विष है, इससे बचें
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👉 यह सोचना मूर्खतापूर्ण है कि सज्जनों के साथ प्रेम तथा दुष्टों के साथ घृणा बरतनी चाहिए। “घृणा” एक मारक विष है। उससे दूसरों का अहित हो सकता है यह सही है, पर यह और भी अधिक सही है कि “घृणा” जहाँ कहीं भी रहती है, उस अंतःकरण को अनेकानेक दुष्ट चिंतनों की दुर्गंध से भर देती है। घृणा का अभ्यासी इतना शंकाशील और विग्रही हो जाता है कि फिर उसके लिए सज्जनों के प्रति भी श्रद्धा और विश्वास रख सकना संभव नहीं रहता। दुष्टता का गहरा चिंतन करने पर ही घृणा उत्पन्न होती है। इससे व्यक्ति या स्थिति का निकृष्ट स्तर ही उभरता है और मस्तिष्क पर छाया रहता है। इस विषाक्त घुटन से अपना चिंतनतंत्र ही सड़-गल जाता है फिर उसके लिए कोई ऊँची बात सोच सकना तक कठिन हो जाता है।
👉 “घृणा” से संघर्ष की वृत्ति उपज सकती है और अवांछनीयता से अधिक तत्परतापूर्वक लड़ सकना संभव हो जाता है, यह सही है। तीव्र घृणा मन में भरी रहे, तो शत्रु पर तीखे प्रहार कर सकना बन पड़ता है, यह भी सही है। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि आक्रमण की अभ्यस्त मनोभूमि फिर केवल उसी प्रयोजन के उपयुक्त बनकर रह जाती है। उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाया जा सकना कठिन होता है। ऐसे लोगों के सामने जब शत्रु पक्ष नहीं रहता, तो वे अपनों का ही विनाश करने में लग जाते हैं। आक्रमण की आदत को अपनी तृप्ति के लिए आखिर कुछ तो चाहिए। शत्रु न सही-मित्र ही सही। क्रूर कर्मों में निरत व्यक्ति जितने भयंकर बाहर वालों के लिए होते हैं, उतने ही निर्मम स्वजनों के लिए होते हैं। तनिक-सी बात पर वे अपने ही स्त्री, बच्चों तक की हत्या करने पर उतर आते हैं। क्रूर कर्म और क्रूर चिंतन उनकी ममता को-कोमल भावना को एक प्रकार से समाप्त ही करके रख देता है। यह हानि इतनी बड़ी है, जिसकी तुलना में घृणास्पद का विनाश करना भी कम महत्त्व का रह जाता है।। ➖➖🪴➖➖