🥀 २२ नवंबर २०२४ शुक्रवार 🥀
//मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष सप्तमी २०८१//
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‼ऋषि चिंतन‼
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❗भगवान मिलते क्यों नहीं हैं ?❗
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👉 “भक्त” “भगवान” को तलाशता है और “भगवान” “भक्त” को ढूँढ़ते हैं। कैसी आँख मिचौली है कि कोई किसी को मिल नहीं पाता। तथाकथित भक्तों की कमी नहीं। वे तलाशते भी हैं, पर मिल नहीं पाते। इसलिए कि उन्हें न तो भगवान का स्वरूप मालूम है, न प्रयोजन, न मिलने का मार्ग। “खुशामद” और “रिश्वत” मनुष्यों को आकर्षित करने वाला फूहड़ तरीका ही लोगों के अभ्यास में रहता है, सो वे उसे भी भगवान पर प्रयुक्त करते हैं। लंबी चौड़ी शब्दावली का उच्चारण करके भगवान को इस प्रकार बहकाने का प्रयत्न करते हैं मानो वह उच्चारण को ही यथार्थ समझता हो और मानो अंतरंग की स्थिति का उसे पता ही न हो। स्तोत्र पाठ और कीर्तनों की बवंडर हमें सुनाई पड़ती है यदि उसके मूल में मिलन की भावना भी सन्निहित रही होती तो कितना अच्छा होता, पर मिलन का तो अर्थ ही नहीं समझा जा सका। मिलन का अर्थ होता है समर्पण-समर्पण का अर्थ है विलीन होना। बूँद जब समुद्र में मिलती है तो अपना स्वरूप, स्वभाव सभी खो देती है और समुद्र की तरह ही लहराने लगती है। चूँकि समुद्र खारा है इसलिए बूँद अपने में भी खारापन ही भर लेती है कोई ऐसा चिन्ह शेष नहीं रहने देती, जिससे उसका अस्तित्व अलग से पहचाना जा सके। ईश्वर से मिलन का अर्थ है अपने आप को गुण, कर्म-स्वभाव की दृष्टि से ईश्वर जैसा बना लेना और अपनी आकांक्षाओं तथा गतिविधियों को वैसा बना लेना जैसा कि ईश्वर की है अथवा उसे हमसे अभीष्ट है। मिलन का इतना दायरा जो समझ सकता है। उसी की चेष्टाएँ तदनुरूप हो सकती हैं। जिसने वस्तुस्थिति को समझा नहीं, वह चापलूसी का – खुशामदखोरी का धंधा अपनाकर वैसे ही ईश्वर को भी अपने वाक जाल में बाँधना चाहता है जैसे कि अहंकारी और मूर्ख लोगों को चापलूस अपने जाल में फँसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।
👉 दूसरा तरीका ओछे लोगों को कुछ प्रलोभन या रिश्वत देकर किसी को अपने पक्ष में करने का रहता है। वे इस हथियार से ही लोगों से अपना मतलब निकालते हैं, थोड़ी रिश्वत देकर फायदा उठाने की कला उन्हें मालूम रहती है। ऐसे ही ईश्वर को भी थोड़ा प्रसाद, वस्त्र, छत्र, मंदिर आदि के प्रलोभन देकर उससे अपनी भौतिक आकांक्षाएँ पूरा करा लेने की बात लगाते रहते हैं। वे याचनाएँ उनके पुरुषार्थ के अनुरूप है या नहीं, उन्हें संभालने सदुपयोग कर सकने की क्षमता भी है या नहीं, वे नीति न्याय एवं औचित्य युक्त भी है या नहीं, इतना सोचने की किसे फुरसत है ? ईश्वर हमारी कामनाएँ पूरी करे और बदले में थोड़ा उपहार रिश्वत के रूप में दे दें। इतनी ही बुद्धि इन तथाकथित भक्तों की काम करती है और वे शब्दाडंबर तथा उपहार प्रलोभन के तुच्छ आधारों से ऊँची बात सोच ही नहीं पाते। फलस्वरूप उन्हें खाली हाथ ही रहना पड़ता है। इन तथाकथित भक्तों में से किसी को भी भगवान नहीं मिलता और उनके सारे क्रिया-कृत्य निष्फल चले जाते हैं।
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