🥀 ३० जनवरी २०२४ मंगलवार🥀
🍁माघ कृष्णपक्ष पंचमी २०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖पति – पत्नी एक दूसरे के➖
➖❗दोष नहीं, गुण देखें❗➖
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👉 पति-पत्नी को एक-दूसरे का यथार्थ रूप लेकर चलना आवश्यक है। मनुष्य में गुण-दोष होने स्वाभाविक हैं। गुणों में एकदम वृद्धि तथा दोषों को एकदम मिटाना संभव नहीं, जैसा भी यथार्थ स्वरूप एक-दूसरे का है उसी के अनुरूप एक-दूसरे से आशा रखी जाये। पति यदि नारी की आदर्श प्रतिमा को अपने मन-मस्तिष्क में बिठाये रखे व अपनी पत्नी से वैसा ही व्यवहार चाहे, पत्नी भी पति के ऐसे ही आदर्श स्वरूप को लेकर चले और पति को उस कसौटी पर कसे तो दोनों के हाथ निराशा ही लगती है। प्रेम के स्थान पर कटुता आरम्भ होने लगती है, यथार्थ स्वरूप को सामने रखकर चलने से एक-दूसरे को आशा से अधिक ही स्नेह-सहयोग देते हैं तथा परस्पर प्रेम बढ़ता है।
👉 कोई पक्ष यह नहीं चाहता कि वह अनुपयोगी सिद्ध हो। “पति” के हाव-भाव, क्रिया-कलाप तथा कथन द्वारा इस बात की पुष्टि होती रहे कि “पत्नी” उसके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है, उसकी आवश्यकता जैसी विवाह के समय थी वैसी ही आज भी है तो “पत्नी” की दृष्टि में उसका सम्मान बढ़ जाता है। यही “पत्नी” के व्यवहार से भी झलके कि उसे अपने “पति” वैसे ही लगते हैं जैसे विवाह के समय लगते थे तो दाम्पत्य स्नेह के सूत्र और भी दृढ़ हो जाते हैं।
👉 इस उपयोगिता को जताने के लिए प्रशंसा करना, प्रेम प्रदर्शन करना आवश्यक है। यह क्रिया जितनी बार दोहराई जायेगी परस्पर नवीनता तथा आकर्षण बना रहेगा। प्रशंसा करने में इस बात का ध्यान रहे कि प्रशंसा कार्यों की तथा गुणों की ही हो। शरीर तथा सौन्दर्य की प्रशंसा शारीरिक आकर्षण को जन्म देती है। सत्कार्यों तथा गुणों की प्रशंसा एक-दूसरे का सम्मान तो बढ़ाती ही है, साथ ही साथ उनकी और वृद्धि करने का उत्साह भी जगाती है।
👉 मनुष्य से भूल होना अस्वाभाविक नहीं। भूल पति से भी होती है तथा पत्नी से भी, भूलों को सुधारना भी आवश्यक होता है। भूल सुधार का क्रम भी प्रशंसा की तरह ही चलता रहना आवश्यक है, किन्तु सुधार का यह क्रम इस प्रकार न हो कि एक-दूसरे के आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचे। भूल सुधारने-स्वीकारने के लिए वही पक्ष सामने आये जिसने भूल की हो तो सराहनीय ही कहा जायेगा। ऐसी स्थिति में दूसरा पक्ष उसके इस साहस की प्रशंसा करे तो उसके मन पर इसका अच्छा प्रभाव तो पड़ेगा साथ ही अपने जीवन साथी पर उसे गर्व भी हो जायेगा। भूल या गलती करने वाला उसे स्वतः स्वीकार न करे तो दूसरे को सहन कर लेना ही ठीक रहता है। यदि सह सकने योग्य न हो तो उसे अपनी भूल विनम्र शब्दों में बता दे जिससे कि उसे बुरा न लगे।
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