In This Era Of Juncture, Astonishing Changes Are Inevitable | युगसंधि की इस वेला में विस्मयकारी परिवर्तन अवश्यंभावी

🥀 ३० दिसंबर २०२३ शनिवार🥀
🍁पौष कृष्णपक्ष तृतीया २०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖युगसंधि की इस वेला में➖
विस्मयकारी परिवर्तन अवश्यंभावी
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👉 यह युगसंधि की वेला है। परिवर्तन की घड़ियाँ सदा जटिल होती हैं। एक शासन हटता है और दूसरा आता है तो उस मध्यकाल में कई प्रकार की उलट-पुलट भी होती देखी गई है। गर्भस्थ बालक जब छोटी उदरदरी से बाहर निकलकर सुविस्तृत विश्व में प्रवेश करता है तो माता को प्रसव पीड़ा सहनी पड़ती है और बच्चा जीवन-मरण में जूझने वाला पुरुषार्थ करता है। प्रभातकाल से पूर्व की घड़ियों में तमिस्त्रा चरम सीमा तक पहुँचती है। दीपक के बुझते समय बाती का उछलना-फुदकना देखते बनता है। मरणासन्न की साँसें इतनी तेजी से चलती हैं मानो वह नीरोग और बलिष्ठ बनने जा रहा है। चींटी के अंतिम दिन जब आते हैं, तब उसके पर उगते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि परिवर्तन की घड़ियाँ असाधारण उलट-पुलट की होती हैं। उन दिनों अव्यवस्था फैलती, असुविधा होती और कई बार संकट- विग्रहों की घटा भी घुमड़ती है। युग-परिवर्तन की इस संधिवेला में भी ऐसा ही हो रहा है। “असुरता” जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रही है और “देवत्व” को उसे पदच्युत करके सिंहासनारूढ़ होने में अनेक झंझटों का सामना करना पड़ रहा है। भूतकाल में भी ऐसे अवसरों पर यही दृश्य उपस्थित हुए हैं, ऐसे ही घटनाक्रम हुए हैं जैसे कि इन दिनों सामने हैं।
👉 परिवर्तन की प्रक्रिया चल तो बहुत समय से रही है, पर उसकी आरंभिक मंदगति को द्रुतगामी बनने का अवसर इन्हीं दिनों मिला है। प्रकृति जब रुग्ण शरीर से विषाक्तता को निकाल बाहर करने के लिए अधिक तत्परता बरतती है तो कई प्रकार के उपद्रव उठ खड़े होते हैं। उलटी, दस्त, ज्वर आदि में रोगी को कष्ट तो अवश्य होता है, पर संचित मलों की सफाई इससे कम में हो भी नहीं सकती। रक्त में भरी विषाक्तता भी फोड़ा-फुन्सी बनकर बाहर आती और मवाद बनकर विदा होती है। देखने में यह अरुचिकर लगता है, पर चिकित्सक यही कहते हैं कि घबराने की कोई बात नहीं। प्रकृति को अपना काम करने देना चाहिए, जो सफाई चिकित्सक मुद्दतों में नहीं कर सकते थे, वह उस उभार में कुछ ही दिन में संपन्न हो जाएगी। विषमयता के निष्क्रमण में ऐसा होता भी है। सेना भागते-भागते अपने क्षेत्र को नष्ट कर जाती है ताकि शत्रु के हाथ कोई सुविधाजनक परिस्थिति न लगे। लगता है कि सफाई के इन दिनों में ऐसी रणनीति चल रही है। लगता है कि नाली साफ करते समय उड़ने वाली बदबू की तरह इन दिनों जो असुखद घटित हो रहा है उसके पीछे सुखद संभावनाएँ भी झाँकती हैं। प्रसव पीड़ा में एक ओर प्रसूता को अत्यधिक कष्ट होता है दूसरी ओर नवजात शिशु के आगमन की कल्पना में हृदय भी हुलसता है। हर परिवर्तन ऐसे ही विग्रह करता है। कन्या ससुराल जाती है तो परिवार का विछोह कम व्यथित नहीं करता किंतु ससुराल में घर की रानी बनने का सपना उसे धैर्य भी बँधाता है और आश्वासन भी देता है। परिवर्तन की इस वेला में आगत कष्टों को इसी रूप में देखा जाना चाहिए ।
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