🥀 ११ जनवरी २०२४ गुरुवार🥀
🍁पौषकृष्णपक्षअमावस्या२०८०🍁
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‼ऋषि चिंतन‼
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हमारा व्यक्तित्व ऐसे बनता है
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👉 “क्रिया_ स्थूल है और “ज्ञान” सूक्ष्म। क्रिया तक सीमित न रहकर, तत्त्वचिंतन की गहराई में उतरने के प्रयत्न में, हमें चैन और संतोष मिलता है। एक परत इससे भी गहरी है, जिसे “अंतरात्मा” कहते हैं। यहाँ आस्थाएँ रहती हैं। अपने संबंध में प्रिय और अप्रिय के, उचित और अनुचित के, आदतों और प्रचलनों के, पक्ष और सिद्धांतों के संबंध में अनेकानेक मान्यताएँ, इसी केंद्र में गहराई तक जड़ें जमाए बैठी रहती हैं। “व्यक्तित्व” का समूचा ढाँचा, यहीं विनिर्मित होता है। मस्तिष्क और शरीर को तो व्यर्थ ही दोष या श्रेय दिया जाता है। वे दोनों ही वफादार सेवक की तरह हर आत्मा की ड्यूटी ठीक तरह बजाते रहते हैं। उनमें अवज्ञा करने की कोई शक्ति नहीं। आस्थाएँ ही प्रेरणा देती हैं और उसी पेट्रोल से धकेले जाने पर जीवन स्कूटर के दोनों पहिये-चिंतन और कर्तृत्व सरपट दौड़ने लगते हैं। “व्यक्तित्व” क्या है-“आस्था”। मनुष्य क्या है-“श्रद्धा”। “चेष्टाएँ” क्या हैं-“आकांक्षा” की प्रतिध्वनि। गुण, कर्म, स्वभाव अपने आप न बनते हैं और न बिगड़ते हैं। “आस्थाएँ” ही आदतें बनकर परिपक्व हो जाती हैं तो उन्हें “स्वभाव” कहते हैं। अभ्यासों को ही “गुण” कहते हैं। कर्म आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए शरीर और मन को संयुक्त रूप से जो श्रम करना पड़ता है, उसी को कर्म कहते हैं। इन तथ्यों को समझ लेने के उपरांत यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्तित्व के स्तर और उसकी प्रतिक्रिया के रूप में आने वाले सुख-दुःखों की अनुभूति होती रहती है। प्रसन्नता और उद्विग्नता को यों परिस्थितियों के उतार-चढ़ावों से जोड़ा जाता है, पर वस्तुत: वे मनःस्थिति के सुसंस्कृत और अनगढ़ होने के कारण सामान्य जीवन में नित्य ही आती रहने वाली घटनाओं से ही उत्पन्न अनुभूतियाँ भर होती हैं। कोई घटना न अपने आप में “महत्त्वपूर्ण” है और न “महत्त्वहीन”। यहाँ सब कुछ अपने ढर्रे पर लुढ़क रहा है। सरदी-गरमी की तरह भाव और अभाव का, जन्म-मरण तथा हानि-लाभ का क्रम चलता रहता है। हमारे चिंतन का स्तर ही उनमें कभी प्रसन्नता अनुभव करता और कभी उद्विग्न हो उठता है। अनुभूतियों में परिस्थितियाँ नहीं, मन:स्थिति की भूमिका ही काम करती है।
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